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'Cosmology Old and New' में धर्मद्रव्य के समान ईथर को अभौतिक, अपारमाण्विक, अविभाज्य, अखण्ड आकाश के समान लोकव्याप्त स्व में स्थित तथा गति का अनिवार्य माध्यम माना है।
अधर्म द्रव्य या अधर्मास्तिकाय
अधर्मास्तिकाय में प्रयुक्त 'अधर्म' शब्द भी पाप या अधर्म का द्योतक नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार इसका लक्षण 'स्थिति' में सहायक होना है।99 यह जीव एवं पुद्गल के ठहरने में वैसे ही सहायक होता है जैसे वृक्ष की छाया पथिक के विश्राम में सहायक होती है। जहां धर्मद्रव्य को गति का माध्यम माना गया है, वहीं अधर्म द्रव्य को स्थिति का सहायक माना गया है। यदि अधर्म द्रव्य नहीं होता तो जीव एवं पुद्गल की गति का नियमन असम्भव हो जाता। जैसे वैज्ञानिक दृष्टि से गुरूत्वाकर्षण आकाश में स्थित पुदगल पिण्डों की गति को नियन्त्रित करता है, वैसे ही अधर्मद्रव्य भी जीव एवं पुद्गल की गति को नियन्त्रित करता है। संख्या की दृष्टिं से इसे भी एक अखण्ड द्रव्य माना गया है। प्रदेशप्रसार की दृष्टि से लोक में व्याप्त होने के कारण इसे असंख्यप्रदेशी माना गया है। अलोक में इसका अभाव है। सत्ता के स्तर पर यह भी नित्य है।
आकाश द्रव्य या आकाशास्तिकाय
आकाश शब्द 'आ' और 'काश' इन दो शब्दों के योग से बना है । 'आ' का अर्थ सर्वत्र तथा 'काश' का अर्थ प्रकाशित होने वाला है। इसका तात्पर्य यह है कि जो अपने अवगाहदान नामक गुण से सर्वत्र प्रकाशित/प्रभावित होता रहता है, वह आकाश है अथवा जहां धर्म, अधर्म, पुद्गल, जीव और काल अपने-अपने स्वरूप से प्रकाशित होते हैं, उसे आकाश कहते हैं।
तत्त्वार्थ सूत्रकार ने भी आकाश का लक्षण 'आकाशस्यावगाहः किया है अर्थात् जो अवकाश या स्थान दे अथवा जिसमें अन्य द्रव्य अवगाहन कर सकें वह
३८ देखिये 'उत्तराध्ययनसूत्र', तृतीय भाग, पृष्ठ १८५ - आचार्य हस्तीमलजी। ३६ 'अहम्मो ठाणलक्खणो।'
- उत्तराध्ययनसूत्र २६/६ । Jain Education International
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