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शुभप्रवृत्ति या स्वभाव का सूचक नहीं है अपितु यह जीव एवं पुद्गल की गति में निमित्त सृष्टि का एक तत्त्व है। उत्तराध्ययनसूत्र में इसका लक्षण करते हुए कहा गया है 'गई लंक्खणो उ धम्मो' अर्थात् धर्मद्रव्य गति लक्षण वाला है। 34 इसे स्पष्ट करते हुए भगवतीसूत्र में बताया गया है कि जीवों का आना-जाना, बोलना, पलकों का झपकना या ऐसी ही अन्य कायिक, वाचिक और मानसिक प्रवृत्तियां धर्मद्रव्य के माध्यम से सम्पन्न होती हैं | 35
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जैन दार्शनिकों ने धर्मद्रव्य को जीव एवं पुद्गल की गति में संहायक कारण माना है। वह प्रेरक कारण या उपादान नहीं है। वास्तव में गति तो जीव एवं पुद्गल में ही है। टीकाकार नेमिचन्द्राचार्य अपने ग्रन्थ 'द्रव्यसंग्रह में धर्म द्रव्य का लक्षण बताते हुए लिखते हैं कि गतिपरिणत जीव एवं पुद्गल के गमन में धर्मद्रव्य सहकारी है, जैसे मछली के तैरने में जल सहायक है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि गति की शक्ति तो जीव और पुद्गल में ही है। वे स्वयं ही गति स्त्रोत हैं, परन्तु जब भी गति करते हैं धर्मद्रव्य की सहायता से ही करते हैं। जैसे मछली में तैरने की शक्ति है, पानी में वह शक्ति नहीं है, फिर भी पानी की सहायता के बिना मछली तैर नहीं सकती; वैसे ही जीव एवं पुद्गल की . गति में धर्मद्रव्य का योगदान है।
धर्मद्रव्य गति सहायक द्रव्य होने पर भी स्वयं अचल एवं अक्रिय है। लोक में प्रसारित होने के कारण यह धर्मद्रव्य अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत आता है। इसका प्रसारक्षेत्र लोक तक सीमित है। अतः यह लोकव्यापी है। अलोक में इसका अभाव है। यही कारण है कि सिद्धात्मायें लोक के अग्र भाग में स्थित हैं। अलोक में धर्मद्रव्य का अभाव होने से सिद्धात्मायें इसके आगे नहीं जा सकती धर्मद्रव्य एक एवं अखण्ड द्रव्य है। वह लोक तक सीमित होने के कारण अनन्तप्रदेशी न होकर असंख्यप्रदेशी है। उत्तराध्ययनसूत्र में काल की अपेक्षा इसे अनादि एवं अपर्यवसित अर्थात् नित्य माना गया है। 7
आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी इस बात को सिद्ध किया है। ईथर नामक एक अदृश्य पदार्थ है जो गति का कारण है। यहां तक कि प्रो. जी. आर. जैन ने
३४ उत्तराध्ययनसूत्र २८/६ । ३५ भगवती - १३ / ४ / ५६
३६ वृहद्रव्यसंग्रह, गाथा १७ । ३७ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/८ ।
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- ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ६०१) ।
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