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गुण एवं पर्याय के लिए क्रमशः स्वभावपर्याय एवं विभावपर्याय का भी प्रयोग किया जाता है । इससे भी फलित होता है कि पर्याय शब्द से गुण को भी ग्रहण किया जा सकता है।
निष्कर्षतः गुण एवं पर्याय में कथंचित् भेद है, कथंचित् अभेद। इसमें भेद मानने के आधार निम्न हैं। 1. इनकी गुण पर्याय ऐसी भिन्न-भिन्न संज्ञा है । 2. गुण-ध्रौव्यात्मक होने से द्रव्य का नित्यपक्ष है, जबकि पर्याय उत्पादव्ययात्मक अर्थात् अनित्यपक्ष है। दूसरे शब्दों में गुण द्रव्य की चिरस्थायी विशेषता है, जबकि पर्याय उसकी अस्थायी विशेषता है। गुण का आश्रयस्थल द्रव्य है, जबकि पर्याय का आश्रयस्थल द्रव्य एवं गुण दोनों हैं। गुण द्रव्य की सहभावी अवस्था है, पर्याय क्रमभावी अवस्था है। गुण सामान्यात्मक है, किन्तु पर्याय विशेषात्मक है। गुण अन्वयी है जबकि पर्याय अन्वयव्यतिरेकी है।
___ संक्षेप में द्रव्य, गुण और पर्याय सत्ता के स्तर पर एक दूसरे से पृथक नहीं पाये जाते हैं; अतः उनमें अभेद है। किन्तु पर्याय उत्पन्न होती है और नष्ट होती है; वे द्रव्य और गण से पृथक भी हैं, क्योंकि वे कालक्रम में उत्पन्न होकर नष्ट हो जाती है; अतः उनके बीच यथार्थ सम्बन्ध तो भेदाभेद का ही है। द्रव्य के इन्हीं गुण और पर्यायों के पारस्परिक सम्बन्धों का प्रतिबिम्ब है षद्रव्य । अतः आगे हम उत्तराध्ययनसूत्र के परिप्रेक्ष्य में षद्रव्यों के स्वरूप एवं प्रकारों की चर्चा करेंगे।
4.7 षद्रव्यों का स्वरूप एवं लक्षण
उत्तराध्ययनसूत्र में निम्न षद्रव्य माने गये हैं- धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव। यह क्रम उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार है, अन्य ग्रन्थों में इनकी विवेचना का क्रम भिन्न भी पाया जाता है।
धर्मद्रव्य या धर्मास्तिकाय 'धर्मास्तिकाय' शब्द धर्म+अस्ति+काय इन तीन शब्दों के योग से बना है। प्रस्तुत प्रसंग में प्रयुक्त 'धर्म' शब्द आत्मशुद्धि के साधनभूत धर्म, उपासना, कर्तव्य,
३३ 'धम्मो अहम्मो आगासं, कालोपुग्गल-जंतवो । एस लोगो ति पण्णो , जिणेहि वरदसिही ।।'
- उत्तराध्ययनसूत्र २८/७ ।
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