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________________ १६० विभिन्न अवस्थायें पर्याय हैं। द्रव्य, गण एवं पर्याय में यह विभाजन व्यवहार के स्तर पर है। निश्चयतः इनमें विभाजन नहीं किया जा सकता है, ये अभेद हैं। गुण एवं पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध गुण एवं पर्याय में भेद है या अभेद ? इस सम्बन्ध में जैनदर्शन की मूलभूत अवधारणा तो भेदाभेद की ही है, फिर भी जहां सिद्धसेन, हरिभद्र, हेमचन्द्र, यशोविजयजी आदि दार्शनिकों ने गुण एवं पर्याय के अभेद पक्ष पर अधिक बल दिया वहीं उमास्वाति, कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र, वादिदेवसूरि आदि आचार्यों ने गुण एवं पर्याय के भेद पक्ष पर अधिक बल दिया। अकलंक आदि कुछ आचार्यों ने इनमें सन्तुलन बनाये रखने का प्रयत्न किया है। जहां तक हमारे शोधग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र का प्रश्न है उसमें स्पष्ट कहा गया है कि गुण केवल द्रव्य के आश्रित रहते हैं, जबकि पर्याय द्रव्य एवं गुण दोनों के आश्रित रहती है । उत्तराध्ययनसूत्र की इस व्याख्या से गुण एवं पर्याय की भिन्नता प्रतिपादित होती है, किन्तु आचार्य सिद्धसेन आदि ने जो गुण एवं पर्याय में अभेद माना है, उसका आधार यह है कि आगमग्रन्थों में दो ही नयों का उल्लेख मिलता है- (१) द्रव्यार्थिकनय और (२) पर्यायार्थिकनय उनकी यह मान्यता है कि यदि गुण एवं पर्याय भिन्न-भिन्न होते तो गुणार्थिकनय का भी कहीं न कहीं उल्लेख होना चाहिए था। . वस्तुतः गुण एवं पर्याय में भेद या अभेद अपेक्षाविशेष से ही माना जा सकता है। जहां तक नयों के वर्णन का प्रश्न है, उसमें पर्यायार्थिक नय में प्रयुक्त पर्याय शब्द व्यापक रूप से गुण का भी ग्रहण कर लेता है। यथार्थतः गुण भी द्रव्य की एक पर्याय अर्थात् अवस्थाविशेष ही है। इस प्रकार पर्याय शब्द सहभावी अवस्था का द्योतक होने पर गुण का तथा क्रमभावी अवस्था का द्योतक होने पर पर्याय का वाचक है। वस्तुतः द्रव्य का जो नित्यधर्म है वह गुण और जो अनित्यधर्म है वह पर्याय है। दूसरे शब्दों में द्रव्य के नित्यपक्ष को गुण और परिवर्तनशीलपक्ष को पर्याय कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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