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________________ १५६ इस प्रकार जैनदर्शन द्रव्य एवं गुण में भेदाभेद सम्बन्ध मानता है। वैशेषिकदर्शन के समान न तो यह एकान्तिक भेद को स्वीकार करता है और न ही बौद्धदर्शन की तरह एकान्तिक अभेद को स्वीकार करता है। इनमें भेदाभेद को स्पष्ट करते हुए डॉ. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य लिखते हैं कि गुण द्रव्य से अभिन्न है, किन्तु प्रयोजन आदि के भेद से उसका विभिन्न रूप से निरूपण किया जा सकता हैं। अतः वे भिन्न भी हैं।" न केवल गण का वरन पर्याय विशेष का भी द्रव्य के साथ सम्बन्ध है। इनमें से एक के अभाव में दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। द्रव्य के अभाव में गुण एवं पर्याय की या गुण एवं पर्याय के अभाव में द्रव्य की कोई सत्ता नहीं है। द्रव्य एवं पर्याय की अभिन्नता का प्रतिपादन करते हुए सिद्धसेनगणी ने लिखा है कि - अभिन्नांशमतं वस्तु तथोभयमयात्मकम् । प्रतिपत्तेरूपायेन नयभेदेन कथ्यते ।। द्रव्य एवं पर्याय की पारिस्परिक सापेक्षता को सूचित करते हुए यह भी कहा गया है द्रव्य पर्यायरहितं पर्यायाद्रव्यवर्जिताः । क्व कदा केन किं रूपा दृष्टा मानेन केन वा।। इस प्रकार द्रव्य तथा गुण एवं द्रव्य तथा पर्याय में भी परस्पर भेदाभेद स्वीकार किया जाता है। इन्हें उदाहरण के रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है:- जैसे जीवद्रव्य है, ज्ञान उसका गुण है तथा घटज्ञान, पटज्ञान और जीवद्रव्य ज्ञान उस गुण के पर्याय हैं। धर्म और अधर्म द्रव्य हैं, गति-स्थिति में निमित्त होना उनका गुण है तथा गति-स्थितिशील पदार्थों के साथ सम्बन्ध होना उनकी पर्याय है। पुद्गल द्रव्य है, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण इसके गुण हैं तथा घट-पट आदि उसकी पर्याय हैं। इसी प्रकार काल द्रव्य है, वर्तना उसका लक्षण है; पल, घटी, मुहूर्त, प्रहर आदि अथवा सैकण्ड, मिनट, घण्टा आदि उसकी पर्याय हैं। . निष्कर्षतः विभिन्न गुणों तथा पर्यायों के परिवर्तनों के बीच अविच्छिन्नता का नियामक द्रव्य है अर्थात् परिवर्तनों के बीच जो अपरिवर्तित रहता है, वही द्रव्य है और जिस रूप में रहता है वह अपरिवर्तित पक्ष ही गुण है। दूसरे शब्दों में जो द्रव्य के साथ सदैव रहता है, वही गुण है। द्रव्य एवं उसके गुण की ३१ 'जैनदर्शन' पृष्ठ १४४ ३२ 'आर्हतीदृष्टि' पृष्ठ १०३ से उद्धृत - डॉ. महेन्द्रकुमार जैन (न्यायाचार्य)।। - समणी मंगलप्रज्ञा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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