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वहीं इन दोनों की परस्पर सापेक्ष परिभाषा देकर इनमें कथंचित अभेद का प्रतिपादन. भी किया है। इसमें द्रव्य क्या है, इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जो गुणों का आश्रय है वह द्रव्य है। पुनश्च गुण क्या है, इसे स्पष्ट करते हुए इसमें कहा गया है कि जो द्रव्य के आश्रित रहते हैं, वे गुण हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि एक दूसरे के अभाव में उनकी सत्ता नहीं है। द्रव्य के बिना गुण और गुण के बिना द्रव्य नहीं होता है। ये अभिन्न हैं। दूसरी ओर पर्याय को परिभाषित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि 'लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे' अर्थात् पर्याय का लक्षण द्रव्य एवं गुण दोनों के आश्रित रहना है। यहां उभय शब्द का प्रयोग द्रव्य एवं गुण की कथंचित् भिन्नता का भी सूचक है।
द्रव्य एवं गुण के सन्दर्भ में एक प्रश्न यह भी उठता है कि द्रव्य परिणामी नित्य तथा गुण भी परिणामी नित्य है. तो फिर इन दोनों में क्या अन्तर है या इनकी भिन्न संज्ञा का क्या औचित्य है ? इसके समाधान हेतु यह कहा जा सकता है कि द्रव्य में मात्र एक ही गुण नहीं होता; वह अनेक गुणों का पिण्ड हैं। इसके प्रत्येक गुण की अपनी सत्ता है। इस प्रकार द्रव्य अनेक सहभावी गुणों का अभिन्न आधार है। द्रव्य एक ऐसा तत्त्व है जिसमें अस्तित्त्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व आदि सामान्य गुण तथा चेतनत्व, जड़त्व, अवगाहनत्व आदि में से कई एक विशिष्ट गुण साथ रहते हैं। इस प्रकार द्रव्य व्यापक है, गुण सीमित। यहां ध्यान देने योग्य है कि गुण में जो भी परिपामन होता है वह द्रव्य में भी होता है, क्योंकि गुण की सत्ता द्रव्य से पृथक् नहीं है, फिर भी वह द्रव्य का सम्पूर्ण परिणमन नहीं है। मात्र उसके एक अंश का परिणमन है। यह जरूरी नहीं कि द्रव्य के गुण-विशेष के परिणमन के साथ उसके अन्य गुणों में भी परिणमन हो । द्रव्य के प्रत्येक गुण का परिणमन भिन्न भिन्न होता है। अतः एक गुण का परिणमन दूसरे गुण का परिणमन नहीं होता है।
निष्कर्षतः द्रव्य से रहित होकर गुण तथा गुण से रहित होकर द्रव्य की कोई सत्ता नहीं होती है। उदाहरण के रूप में ज्ञान आत्मा का गुण है, परन्तु ज्ञान गुण से भिन्न न तो कोई आत्मा है और न ही आत्मा से भिन्न कोई ज्ञान गुण है। इस प्रकार विचार के स्तर पर आत्मा और ज्ञान को भिन्न किया जा सकता है, किन्तु सत्ता के स्तर पर इनमें अभेद है। इसीलिए आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है वही आत्मा है।०
३० आचारांग- १/५/५/१०४
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ४५) ।
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