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परिवर्तित होता रहता है; स्वभावपर्याय है। इसके विपरीत पर के निमित्त से जो अवस्थान्तर होता है; वह विभावपर्याय है।
जहां तक उत्तराध्ययनसूत्र का प्रश्न है, उसमें यद्यपि पर्याय के इन भेदों की कोई चर्चा नहीं है; फिर भी उसमें एकत्व, पृथक्त्व, संख्या, संस्थान, संयोग
और विभाग आदि को पर्याय का लक्षण माना गया है। ये सभी कल्पनायें पर्याय के प्रकार के आधार पर ही सम्भव है। आगे हम द्रव्य, गुण एवं पर्याय के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना करेंगे।
4.6 द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्ध
द्रव्य, गुण और पर्याय के उपर्युक्त विवेचन के परिप्रेक्ष्य में कई प्रश्न उत्पन्न हो जाते हैं यथा- द्रव्य, गुण एवं पर्याय भिन्न-भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि ये भिन्न हैं, तो इनमें पारस्परिक सम्बन्ध किस प्रकार का है ? यदि ये अभिन्न हैं तो फिर इनकी अलग-अलग संज्ञा या नाम क्यों हैं ?
. उत्तराध्ययनसूत्र के अन्तर्गत दी गई द्रव्य एवं गुण की परिभाषा से ऐसा प्रतीत होता है कि द्रव्य एवं गुण दोनों भिन्न-भिन्न हैं। क्योंकि जब यह कहा जाता है कि गुणों का आश्रय द्रव्य है तब ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें परस्पर आश्रय-आश्रयी भाव सम्बन्ध है अर्थात् द्रव्य गुण का आश्रय स्थल है जैसे- राम मकान में रहता है। यहां स्पष्ट है कि राम और मकान, इन दोनों की भिन्न सत्ता है यह व्याख्या जैनदर्शन की अनेकान्त दृष्टि के अनुकूल नहीं है। यद्यपि द्रव्य और गुण में आश्रय-आश्रयी भाव है, तथापि यह आश्रय-आश्रयी भाव नितान्त भिन्नता का सूचक नहीं है, वरन् भेदाभेद का प्रतिपादक है अर्थात् विचार के स्तर पर द्रव्य एवं गुण में भेद किया जा सकता है पर सत्ता के स्तर पर इनमें अभेद है। अतः द्रव्य और गुण में भेदाभेद का सम्बन्ध है। वे एक दूसरे में अनुस्यूत या व्याप्त हैं। - इस प्रकार द्रव्य एवं गुण में अन्योन्याश्रित सम्बन्ध या तादात्म्य सम्बन्ध है अर्थात् द्रव्य के बिना गुण का अस्तित्त्व नहीं है तथा गुण के बिना द्रव्य का अस्तित्त्व नहीं है। यहां ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययनसूत्र में जहां एक ओर द्रव्य एवं गुण में आश्रय-आश्रयी भाव स्थापित कर इन दोनों में कथंचित् भेद का निरूपण किया है
• २६ 'एगत्तं च पुहुतं च, संखा संठाणमेव य ।
संजोगा य विभागा य, पज्जवाणं तु लक्खणं ।'
- उत्तराध्ययनसूत्र २८/१३ ।
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