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वस्तुतः जीवद्रव्य और अजीवद्रव्य जिन-जिन अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं या जिन जिन पर्यायों में अवस्थित होते हैं वे सब आगमिक दृष्टि से पर्याय मानी गई हैं।
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दार्शनिक दृष्टि से सर्वप्रथम आचार्य सिद्धसेन दिवाकर के 'सन्मतितर्क' में पर्याय के भेदों की चर्चा मिलती है। उन्होंने पर्याय के दो भेदों- अर्थपर्याय एवं व्यंजनपर्याय, की व्याख्या विस्तार से की है। 28 यहां ज्ञातव्य है कि आगम में पर्याय की जिस रूप में चर्चा उपलब्ध होती है, वह मुख्यतः व्यंजनपर्याय की अपेक्षा से ही है।
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अर्थपर्याय वर्तमान कालवर्ती पर्याय है, जबकि व्यंजनपर्याय द्रव्य की त्रिकालवर्ती पर्याय की परिचायक है। दूसरे शब्दों में एक समयवर्ती पर्याय को अर्थ पर्याय एवं अनेक समयवर्ती पर्याय को व्यंजनपर्याय कहा जा सकता है । यहां यह भी ज्ञातव्य है कि जहां व्यंजनपर्याय शब्दसापेक्ष है, वह उसकी शब्दवाच्यता का विषय है वहां अर्थपर्याय शब्दनिरपेक्ष होती है, क्योंकि यह मात्र एक समयवर्ती होती है। अतः इसे शब्द के द्वारा वाच्य नहीं बनाया जा सकता है । पुनः व्यंजनपर्याय प्रवाहरूप या सन्ततिरूप होती है जबकि अर्थपर्याय सामयिक होती है। व्यंजनपर्याय में भेद सम्भव है - जैसे पुरूषरूप व्यंजन पर्याय में बाल, यौवन, वृद्धत्व आदि अवान्तर व्यंजनपर्यायें मानी जा सकती हैं; पर अर्थपर्याय में इस प्रकार का भेद सम्भव नहीं है क्योंकि वह मात्र वर्तमान समयवर्ती होती है। संक्षेपतः व्यंजनपर्याय में विकल्प सम्भव है। अर्थपर्याय में विकल्प सम्भव नहीं है । व्यंजनपर्याय स्थूल एवं अर्थपर्याय सूक्ष्म होती है।
इसी प्रकार पर्यायों के ऊर्ध्वपर्याय तिर्यक्पर्याय ऐसे भी भेद किये जाते हैं। इनमें ऊर्ध्वपर्याय, अर्थपर्याय की एवं तिर्यक्पर्याय व्यंजनपर्याय की द्योतक है। इन्हें उदाहरण के रूप में इस प्रकार समझा जा सकता है। भूत, भविष्य और वर्तमान के अनेक मनुष्यों की अपेक्षा से मनुष्य की जो अनन्तपर्यायें होती है वे तिर्यक् या व्यंजनपर्याय कही जाती है तथा एक ही मनुष्य के प्रतिक्षण होने वाले परिणमन को उर्ध्व या अर्थपर्याय कहा जाता है।
पर्यायों का एक वर्गीकरण स्वभाव और विभाव की अपेक्षा से भी किया जाता है। वस्तुतः द्रव्य का विशिष्ट गुण जो पर - निमित्त के अभाव में स्वतः
२८ सन्मतितर्कप्रकरण
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- प्रथमकाण्ड गाथा ३० से ३४ ।
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