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________________ १५५ पर्याय पर्याय जैनदर्शन का विशिष्ट शब्द है। गुण की तरह पर्याय भी द्रव्य का धर्म है। गुण निरन्तर द्रव्य के साथ रहता है, पर्याय बदलती रहती है। इस प्रकार द्रव्य का परिवर्तित धर्म पर्याय है; दूसरे शब्दों में द्रव्य में होने वाले विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय हैं। पर्याय को परिभाषित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो द्रव्य एवं गुण दोनों के आश्रित रहे वह पर्याय कहलाती है। ___ उत्तराध्ययनसूत्र सूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार 'जो समस्त द्रव्यों एवं समस्त गुणों में व्याप्त होती है वह पर्याय (पर्यव) कहलाती है। 24 पर्याय के स्वरूप को अधिक स्पष्ट करते हुए न्यायालोक की 'तत्त्वप्रभावृत्ति में कहा गया है जो उत्पन्न होती है, विपत्ति अर्थात् विनाश को प्राप्त होती है अथवा जो समग्र द्रव्यों में व्याप्त रहती है वह पर्याय या पर्यव है। 25 आचार्य उमास्वाति ने पर्याय के लिए परिणाम शब्द का प्रयोग किया है। द्रव्य अपने मूलस्वभाव का त्याग किये बिना प्रति समय भिन्न-भिन्न अवस्था को प्राप्त होते रहते हैं। द्रव्यों के ये परिवर्तनशील परिणाम पर्याय कहलाते हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य प्रति क्षण अवस्थान्तर या नूतन अवस्था को प्राप्त होता रहता है । द्रव्य की इस अवस्था को ही पर्याय कहा जाता है। पर्याय के प्रकार 'जहां तक पर्याय के प्रकारों की चर्चा का प्रश्न है उत्तराध्ययनसूत्र मूल एवं उसकी टीकाओं में हमें इनका कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता है। . आगमसाहित्य में प्रज्ञापनासूत्र के पर्यायपद में जीवपर्याय और अजीवपर्याय, ऐसे पर्याय के दो भेदों की चर्चा की गई है। साथ ही इसमें जीवपर्याय एवं अजीवपर्याय की अनेक सम्भावित पर्यायों की भी विस्तार से विवेचना की गई है। २३ 'लक्खणं पज्जवाणं तु उभओ अस्सिया भवे ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र २८/६ । २४ 'परि सर्वतः द्रव्येषु गुणेषु सर्वेष्वन्ति गच्छन्तीति पर्यवा' - उत्तराध्ययनसूत्र टीका (शान्त्याचार्य) पत्र ५५० । २५ न्यायालोक -तत्त्वप्रभावृत्ति पत्र २०३ - (उद्धृत -उत्तज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ १४६, युवाचार्य महाप्रज्ञ) । २६ 'तभावः परिणामः' - तत्त्वार्थसूत्र ५/४१। २७ प्रज्ञापना ५/१ - (उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ११२) ।. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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