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यह द्रव्य की विभिन्न पर्यायों में भी बना रहता है जैसे आत्मा का चेतना गुण नरक, तिर्यच, मनुष्य, देव आदि सभी पर्यायों में बना रहता है। - आचार्य वादिदेवसूरि के अनुसार द्रव्य का सहभावी धर्म गुण कहलाता है। यहां सहभावी धर्म भी नित्य सम्बन्ध का ही परिचायक है। सदा साथ रहने वाला धर्म सहभावी धर्म है।
उपर्युक्त सभी परिभाषाओं का समन्वय डॉ. सागरमल जैन ने. निम्न परिभाषा में किया है - "द्रव्य का जो अविनाशी लक्षण है अथवा द्रव्य जिसका परित्याग नहीं कर सकता है, वही गुण है। 2
इस प्रकार जो द्रव्य के साथ अविच्छिन्न रूप से सतत सहभावी होकर रहे वह गुण कहलाता है।
गुण के प्रकार गुण दो प्रकार के होते हैं – (१) सामान्य और (२) विशेष (१) सामान्य गुण
सभी द्रव्यों में सामान्य रूप से पाये जाने वाले गुण सामान्यगुण कहलाते हैं। ये द्रव्य सामान्य में अनिवार्यतः पाये जाते हैं अर्थात् किसी भी द्रव्य में इनका अभाव नहीं होता है। आगमों में निम्न छ: प्रकार के सामान्यगुण प्रतिपादित किए गये हैं - (5) अस्तित्त्व (२) वस्तुत्व
(३) द्रव्यत्व (४) प्रमेयत्व .. (५) प्रदेशत्व और (६) अगुरूलघुत्व ।
जिस गुण के कारण द्रव्य का कभी विनाश नहीं होता, वह अस्तित्त्व गुण कहलाता है। द्रव्य का किसी न किसी प्रकार की क्रिया करते रहना ‘वस्तुत्व' गुण है अथवा अन्य अनेक पदार्थों से प्रभावित होने पर भी द्रव्य 'अपनेपन' का त्याग नहीं करता है वह उसका 'वस्तुत्व' गुण है। 'द्रव्यत्व' गुण वह है जिसके कारण द्रव्य गुण और पर्यायों को धारण करता है या द्रव्य का अवस्थान्तर में परिवर्तित होते रहना 'द्रव्यत्व' गुण है। यथार्थज्ञान का विषय प्रमेय कहलाता है अर्थात् जिस गुण के कारण द्रव्य ज्ञान द्वारा जाना जाता है, वह 'प्रमेयत्व' गुण है। जिस गुण के माध्यम
२३ 'गुणः सहभावी, धर्मो यथा-आत्मनि विज्ञानव्यक्ति शक्त्यादयः' - प्रमाणनयतत्त्वालोक ५/७ । २२ 'द्रव्यानुयोग' भाग १, भूमिका पृष्ठ ३८
- डॉ. सागरमल जैन ।
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