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वस्तुतः इन परिवर्तनों से गुजरते हुए अपने मूल स्वरूप या गुण को . नहीं खोना ही द्रव्य का मूलभूत लक्षण है। द्रव्य शब्द की व्युत्पत्तिमूलक व्याख्या हमें बताती है (द्रवति इति द्रव्य)। 'अद्रुवत्, द्रवति, द्रोष्यति तांस्तान् पर्यायान् इति द्रव्यम' अर्थात् जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ, हो रहा है और होगा वह द्रव्य है।
द्रव्य के दो मूलभूत घटक हैं- गुण और पर्याय आगे हम : उत्तराध्ययनसूत्र के परिप्रेक्ष्य में इन पर चर्चा करेंगे।
४.५ गुण एवं पर्याय का स्वरूप
उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य के दो प्रकार के स्वरूप प्रतिपादित किये गए.. हैं- गुण एवं पर्याय द्रव्य का नित्य या अपरिवर्तित धर्म गुण तथा परिवर्तित या अनित्य धर्म पर्याय कहलाता है।
गुण को परिभाषित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि जो द्रव्य के आश्रित रहते हैं वे 'गुण' हैं। गुण की यह परिभाषा गुण के स्वलक्षण को सूचित नहीं करके मात्र उसकी द्रव्य सापेक्षता को बताती है। इससे यह ज्ञात होता है कि गुणों के गुण नहीं होते, इनकी पहचान द्रव्य (गुणी) के द्वारा ही होती है। परवर्तीकाल में आचार्य उमास्वाति ने भी गुण की परिभाषा देते हुए कहा है कि जो . द्रव्य के आश्रित हों, परन्तु स्वयं निर्गुण हों वे गुण कहलाते हैं। गुणों को निर्गुण नहीं मानने पर गुणों के गुण और फिर उनके गुण मानने पड़ेंगे इस प्रकार अनवस्था दोष उत्पन्न होगा।
___ वैशेषिकदर्शन में भी गुण को द्रव्याश्रित एवं निर्गुण माना गया है, किन्तु उसमें द्रव्य एवं गुण का आश्रय आश्रयी भाव भेदपरक है। जबकि जैनदर्शन में द्रव्य एवं गुण का आश्रय आश्रयीभाव अभेदपरक है, जो द्रव्य एवं गुण में अन्वय व्यतिरेक रूप व्याप्ति का द्योतक है और पर्याय विशेष का आश्रय-आश्रयी भाव भेदपरक है, क्योंकि पर्यायविशेष द्रव्य में कभी होती है और कभी नहीं होती। किन्तु जिस द्रव्य का जो गुण या स्वलक्षण होता है वह उसमें नित्य सम्बन्ध से रहता है;
१८ गुणानां आसवो दव्यो' १९ 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' २० तर्कसंग्रह न्यायबोधिनी टीका पृष्ठ ५।
- उत्तराध्ययनसूत्र २८/६ । - तत्त्वार्थसूत्र ५/४० ।
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