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________________ १५१ २. अनित्य (उत्पाद-व्ययात्मक) पक्ष। द्रव्य के ये नित्य एवं अनित्य पक्ष ही गुण एवं पर्याय कहलाते हैं। नित्यपक्ष 'गुण' है और अनित्य पक्ष 'पर्याय' है। इस प्रकार द्रव्य का स्वरूप नित्यानित्यधर्मा हुआ। स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उठता है कि जो नित्य है वह अनित्य कैसे ? दो विरोधी धर्मों का एक साथ होना आखिर कैसे सम्भव है? इसके निराकरण हेतु आचार्य उमास्वाति द्वारा की । गई 'नित्य' की व्याख्या विचारणीय है। उनके अनुसार जो अपने स्वभाव (जाति) से च्युत या विलग न हो वह 'नित्य' है।" सभी 'द्रव्य' अपनी जाति में स्थित रहते हुए भी निमित्त के अनुसार परिवर्तन को प्राप्त होते हैं। दूसरे शब्दों में द्रव्य में परिणमन होता है फिर भी उसकी स्वरूप हानि नहीं होती। जैसे एक मत्तिकापिण्ड पिण्डाकार को छोड़कर घट के आकार में परिवर्तित होता है पर मिट्टी का अस्तित्त्व दोनों अवस्था में सुरक्षित रहता है। यहां मिट्टी में उत्पाद (परिवर्तन) घट पर्याय की अपेक्षा से है, व्यय (विनाश) मृत्तिकापिण्ड की अपेक्षा सें है और ध्रुवता दोनों में निहित मिट्टी की अपेक्षा से है अर्थात् प्रत्येक द्रव्य में परिवर्तन के साथ स्थिरता (Permanance with a change) है। यही जैनदर्शन का परिणामीनित्यवाद है; परिणामीनित्य में परिणाम का अर्थ अवस्थान्तर को प्राप्त होना है न कि अर्थान्तर को। अतः अवस्थान्तर को प्राप्त होने वाला नित्य परिणामीनित्य है। क्योंकि पर्याय या अवस्थायें ध्रुव अंश में ही उत्पन्न एवं नष्ट होती हैं। धौव्य पक्ष के बिना पूर्ववर्ती एवं परवर्ती अवस्थाओं में कोई सम्बन्ध नहीं रह सकता है। इसी प्रकार ध्रौव्य के अभाव में यह प्रश्न, प्रश्न ही बना रहेगा कि आखिर किसका पर्याय परिवर्तन होता है या कौन परिवर्तित होता है ? . आज विज्ञान भी इस बात को स्वीकार करता है कि ऊर्जा की कुल राशि अचल (Constant) है अर्थात् विश्व में द्रव्य का परिमाण सदा समान रहता है। उसमें किंचित् भी न्यूनाधिकता नहीं होती । यह व्यवहारिक जगत का अनुभूत सत्य है. कि किसी विद्यमान सत्ता (द्रव्य) का सर्वथा नाश नहीं होता और न ही किसी नवीन सत्ता (द्रव्य) की उत्पत्ति होती है। दृश्य-जगत में अनुभूत 'उत्पाद-विनाश रूपान्तरण मात्र है जैसे कोयला जलकर राख, कार्बनडाईआक्साइड के रूप में परिणत हो जाता है । इसी प्रकार बर्फ, जल के रूप में और जल बर्फ के रूप में परिवर्तित होता रहता है, पर मूल तत्त्व सदैव सुरक्षित रहता है। १७ तत्त्वार्थसूत्र ५/३० । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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