________________
१५०
एकान्त अनित्यवाद दोनों का किंचित् भी अवकाश नहीं है। यह परिभाषा समन्वयात्मक दृष्टिकोण की परिचायक है; क्योंकि जहां वेदान्तदर्शन 'सत्' को कूटस्थनित्य तथा बौद्धदर्शन ‘पदार्थ को क्षणिक या अनित्य मानता है, न्यायवैशेषिक तथा सांरव्यदर्शन कुछ तत्त्वों को नित्य तथा कुछ को अनित्य मानते हैं; वहीं आचार्य उमास्वाति द्वारा कृत 'सत्' की परिभाषा प्रत्येक द्रव्य में नित्यत्व एवं अनित्यत्व दोनों पक्षों को स्वीकार करती है। _ विशेषावश्यकभाष्य' में 'द्रव्य' को अनेक रूप से व्याख्यायित किया गया है -
(१) जो पर्यायों को प्राप्त करता है; (२) जो पर्यायों का आधार है; (३) जो सत्ता का अवयव है; (४) जो सत्ता का विकार है; (५) जो गुणों का समुदाय है और (६) जिसमें भूत एवं भविष्यकालीन पर्यायों को प्राप्त करने की योग्यता है।
आचार्य हेमचन्द्र ने 'प्रमाणमीमांसा' की स्वोपज्ञवृत्ति में विभिन्न पर्यायों को प्राप्त होने वाले धौव्यस्वभावी 'तत्त्व' को 'द्रव्य' कहा है।
आचार्य कुन्दकुन्द के अनुसार जो अपरित्यक्त स्वभाव वाला है, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य से युक्त तथा गुण पर्याय सहित है, वह 'द्रव्य'. है।
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार 'विश्व के मूलभूत घटक जो अपने अस्तित्त्व के लिए किसी अन्य घटक पर आश्रित नहीं हैं तथा जो कभी भी अपने स्व-स्वरूप का परित्याग नहीं करते, वे 'सत्' या 'द्रव्य' कहलाते हैं।"
उपर्युक्त परिभाषाओं के परिप्रेक्ष्य में 'द्रव्य' का निम्न स्वरूप निर्धारित होता है – १. जो 'द्रव्य' गुणपर्याय से युक्त होता है। २. उत्पाद्व्ययध्रौव्यात्मक है । ३ निराश्रित या स्वतन्त्र है। ४. विश्व का मूलभूत घटक है तथा ५. विभिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करने पर भी अपने मूलस्वरूप का परित्याग नहीं करता है। वस्तुतः 'द्रव्य' को गुणपर्याय से युक्त कहना अथवा उत्पाद्व्यय ध्रौव्यात्मक कहना एक ही बात है, क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के दो पक्ष होते हैं - १. नित्य (ध्रौव्य पक्ष) तथा
- (उद्धृत द्रव्यानुयोग, भाग १, पृष्ठ ५) ।
१३ विशेषावश्यक भाष्य गाथा २८ । १४ प्रमाणमीमांसा - स्वोपज्ञवृत्ति १/१/३० १५ प्रवचनसार गाथा ६५ एवं ६६ । १६ 'द्रव्यानुयोग', भाग १, भूमिका, पृष्ठ २५
- डॉ. सागरमल जैन ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org