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द्रव्य की एक
परिभाषा 'गुणानां समुहो दव्वो' के रूप में की गई है। इसमें गुणों के समुदाय को द्रव्य कहा गया है। जैसे- मूल, स्कन्ध, शाखा और प्रशाखा आदि का समूह ही वृक्ष है, उसी प्रकार अस्तित्त्व, परिणामित्व, वस्तुत्व, ज्ञेयत्व आदि सामान्य गुणों तथा चेतना, गतिहेतुत्व आदि विशिष्ट गुणों का समूह ही द्रव्य है । यह परिभाषा आचार्य पूज्यपाद् कृत 'तत्त्वार्थसूत्र' की 'सवार्थसिद्धि' टीका में उद्धृत् है । ° डॉ. सागरमल जैन के अनुसार यह परिभाषा सम्भवतः किसी लुप्त या अनुपलब्ध आगम ग्रन्थ से यहां उद्धृत् की गई है।
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(२) गुणसमुदायरूप द्रव्य
(३) गुणपर्यायवद् द्रव्य
उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य को गुणों का आश्रय कहा गया है। किन्तु परवर्ती काल में आचार्य उमास्वाति ने 'गुणपर्यायवद् द्रव्यं' कहकर जैनदर्शन द्वारा मान्य भेदाभेदवाद को पुष्ट किया है। " इस परिभाषा में प्रयुक्त 'वत्' पद जहां द्रव्य, गुण एवं पर्याय में अभेद का प्रतिपादन करता है वहीं इसमें प्रयुक्त द्रव्य, गुण एवं पर्याय की भिन्न-भिन्न संज्ञा इनमें भिन्नता का प्रदर्शन करती है।
१० तत्त्वार्थसूत्र - ५ / ३८ ११ तत्त्वार्थसूत्र - ५/३७ । १२ तत्त्वार्थसूत्र - ५/२६ ।
(४) सत् स्वरूपमय द्रव्य
आचार्य उमास्वाति ने द्रव्य के गुण पर्यायवत् लक्षण के साथ ही 'सत्' को भी द्रव्य का लक्षण माना है। इससे फलित होता है कि सत् या अस्तित्त्व ही द्रव्य का प्रमुख लक्षण है; इस परिभाषा में किया गया द्रव्य का लक्षण द्रव्य की कूटस्थ नित्यता या अपरिवर्तनशील अस्तित्त्व का ही द्योतक नहीं है क्योंकि सत् का लक्षण करते हुए आचार्य उमास्वाति ने कहा है- 'उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' अर्थात् 'सत्' उत्पाद् व्यय के साथ-साथ धौव्यात्मक भी है। 12 इस परिभाषा से 'सत्' को परिणामी नित्य माना गया है, जिसके कारण इसमें एकान्त नित्यवाद और
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( सर्वार्थसिद्धि टीका) ।
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