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है। यही कारण है कि कुछ विद्वान यह भी स्वीकार करते हैं कि जैनदर्शन में जो द्रव्य की अवधारणा का विकास हुआ है, वह न्यायवैशेषिकदर्शन से प्रभावित है। इस सम्बन्ध में हम अपनी ओर से कुछ निर्णय देने की अपेक्षा यही उचित समझते हैं कि सर्वप्रथम जैनदर्शन में द्रव्य सम्बन्धी जो विभिन्न परिभाषायें दी गई हैं उन पर सम्यक एवं तुलनात्मक दृष्टि से विचार कर लिया जाये। क्योंकि इससे यथार्थ स्थिति स्वतः ही स्पष्ट हो जायेगी कि द्रव्य सम्बन्धी अवधारणा में कहां तक उसका अन्य दर्शनों से सामीप्य है और कहां उसका अपना मौलिक चिन्तन है।
4.4 जैनदर्शन में द्रव्य की अवधारणा . जैन साहित्य में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग अनेक सन्दर्भो में किया गया है। उदाहरणार्थ द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव आदि अनुयोगद्वारों या अपेक्षाओं के सन्दर्भ में; नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव आदि निक्षेपों के सन्दर्भ में; द्रव्यकर्म तथा भावकर्म के रूप में; कर्म-सिद्धान्त के सन्दर्भ में तथा द्रव्यार्थिक नय के रूप में ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग मिलता है। किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में 'द्रव्य' शब्द की जो चर्चा अभिप्रेत है, वह विश्व के मूलभूत घटक के रूप में है।
उत्तराध्ययनसूत्र में द्रव्य शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर किया गया है इसमें प्रयुक्त द्रव्यं शब्द मुख्यतः मूलभूत घटक का ही वाचक है।
जैन साहित्य में प्राप्त 'द्रव्य' की परिभाषा को निम्न बिन्दुओं के माध्यम से व्याख्यायित किया जा सकता है -
(१) गुणआश्रयरूप द्रव्य उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है 'गुणानां आसवो दव्यो' अर्थात् गुणों का जो आश्रयस्थल है, वही द्रव्य है। विश्व के मूलघटक के रूप में यह द्रव्य की प्राचीन परिभाषा है। यह परिभाषा वैशेषिकदर्शन से कथंचित साम्य रखती है तथा द्रव्य और गण में कथंचित् भेद का प्रतिपादन करती है।
६ उत्तराध्ययनसूत्र - २८/६ ।
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