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माना जाय तो ये जीवतत्त्व के अन्तर्गत समाविष्ट होंगे। दिक् और आकाश दोनों आकाश – रूप हैं तथा काल स्वतन्त्र द्रव्य है ही।
मीमांसादर्शन मीमांसादर्शन द्रव्य को गुण एवं कर्म के आधार के रूप में स्वीकार करता है। कुमारिलभट्ट के अनुसार जिसमें क्रिया और गुण हो वह द्रव्य है। इस प्रकार स्वरूपतः मीमांसा दर्शन का द्रव्य जैनदर्शन से सामीप्य रखता है ।
सांरव्यदर्शन
यह द्वैतवादी दर्शन है। इसके अनुसार मूलतत्त्व दो हैं – (१) प्रकृति और (२) पुरूष। इनसे उत्पन्न तत्त्व बुद्धि, अहंकार, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, पंचतन्मात्रा और पंचमहाभूत हैं। पुरूष शुद्ध चैतन्यरूप है। जो देशकाल आदि बन्धनों से मुक्त है; वह निर्गुणं, निष्क्रिय एवं कूटस्थनित्य है। केवल द्रष्टा एवं भोक्ता है, कर्ता नहीं। प्रकृति जड़तत्त्व है, यह परिणामीनित्य है। समग्र दृश्यजगत इस प्रकृति का ही परिणाम है, प्रकृति एवं पुरूष का संयोग सृष्टि है तथा प्रकृति और पुरूष का परस्पर वियोग मोक्ष है। इस प्रकार सांरव्यदर्शन में मूल दो तत्त्व तथा इन्हीं के विस्तार रूप पच्चीस तत्त्व माने गये हैं।
अरस्तू यूनानी दार्शनिक अरस्तू विश्व के मूलभूत तत्त्वों के रूप में 'द्रव्य' एवं 'आकार' को स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार जगत इन दो तत्त्वों का ही विस्तार है, जैसे मेज का द्रव्य लकड़ी तथा स्वरूप मेज की आकृति है। इस प्रकार अरस्तू के अनुसार द्रव्य सभी वस्तुओं का मूल कारण है; अतः वह सबका आश्रय या अधिष्ठान
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