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विचारकों की अवधारणा क्या है और जैनदर्शन की षद्रव्य की अवधारणा किससे कितना सामीप्य रखती है।
4.3 विविध दर्शनों में द्रव्य की अवधारणा
वेदान्तदर्शन वेदान्तदर्शन के अनुसार इस विश्व में जो कुछ है, वह एकमेव अद्वितीय ब्रह्म ही है तथा वह सत् एवं कूटस्थ नित्य है। इन दार्शनिकों का उद्घोष है 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति' अर्थात् सत् (परमतत्त्व) एक है, किन्तु विप्र (विद्वान्) उसे अनेक रूपों से कहते हैं। अतः वे एकमात्र ब्रह्म को ही सृष्टि के मूल घटक के रूप में स्वीकार करते हैं (सर्वं खलु इदम् ब्रह्म)। उनके अनुसार जगत एक प्रतीति मात्र है, किन्तु उसका अधिष्ठान ब्रह्म ही है।
बौद्धदर्शन बौद्धदर्शन के अनुसार विश्व के मूल घटक एक नहीं अनेक हैं, वे क्षणिक हैं तथा उत्पाद् व्यय धर्मात्मक हैं। उनकी दृष्टि में जगत एक प्रवाह या धारा है जिसमें सभी कुछ क्षणिक एवं परिवर्तनशील है। अतः बौद्ध परम्परा के अनुसार द्रव्य अनित्य है । वे अर्थक्रियाकारित्व या सन्तति के आधार पर विश्व की व्याख्या करते हैं।
न्याय-वैशेषिक दर्शन न्याय-वैशेषिकदर्शन बहुतत्त्ववादी दर्शन है, इसमें विश्व के मूलभूत घटक के लिए 'द्रव्य' शब्द का प्रयोग किया है। वैशेषिकदर्शन के अनुसार द्रव्य वह है जो गुण तथा कर्म का आश्रय एवं उसका समवायी कारण हो। इसमें नौ द्रव्यों की स्वतन्त्र सत्ता मानी गयी है। जिसमें पृथ्वी, जल, तेज एवं वायु को अनित्य द्रव्य और आकाश, दिक, आत्मा, मन एवं काल को नित्य द्रव्य माना है। इन नौ द्रव्यों का समावेश जैनदर्शन द्वारा मान्य षद्रव्यों के अन्तर्गत हो जाता है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आत्मा और मन जीवास्तिकाय या जीव के ही विभिन्न प्रकार हैं। यदि पृथ्वी, जल, तेज और वायु को अजीवतत्त्व माना जाय तो पुद्गल के अन्तर्गत तथा जीव
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