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इस प्रकार धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकायं, पुद्गलास्तिकाय एवं जीवास्तिकाय ये पांच अस्तिकाय कहलाते हैं। कालान्तर में इन्हीं पांच अस्तिकाय के साथ 'काल' को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार कर लेने पर षद्रव्य की अवधारणा विकसित हुई। षद्रव्य के अन्तर्गत पांच अस्तिकायों का समावेश हो जाता है, अतः हम यहां पंचास्तिकाय की विवेचना न करके षद्रव्य की विवेचना करेंगे।
4.2 षद्रव्यों की अवधारणा
उत्तराध्ययनसूत्र में तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत मुख्यतः षद्रव्यों एवं नवतत्त्वों का विवेचन किया गया है। यद्यपि उसमें पंचास्तिकाय का उल्लेख हुआ है, किन्तु उन अस्तिकायों की विवेचना षद्रव्यों की अवधारणा के अन्तर्गत की गई है। जैसा कि पूर्व में उल्लिखित है कि पंचास्तिकाय की अवधारणा में . काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानकर षद्रव्य की अवधारणा विकसित हुई। उत्तराध्ययनसूत्र स्पष्टतः काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानकर चलता है; अतः इसमें पंचास्तिकाय के स्थान पर षद्रव्य की अवधारणा प्रमुख रही है।
- जैनदर्शन में काल की स्वतन्त्र 'द्रव्य के रूप में स्वीकृति तत्त्वार्थभाष्य के समय अर्थात् लगभग तीसरी शती तक विवादास्पद रही है
और यह विवाद विशेषावश्यकभाष्य के काल (सातवीं शती) तक भी प्रचलित रहा है। प्रारम्भ में काल को जीव एवं अजीव की पर्याय मात्र माना जाता था। कालान्तर में उसे स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया । इस प्रकार षद्रव्यों की अवधारणा अस्तित्व में आई। कुछ विद्वानों के अनुसार
जैनदर्शन में पंचास्तिकाय की अवधारणा के स्थान पर षद्रव्यों की अवधारणा के विकास में भारतीय दर्शन की अन्य परम्पराओं का प्रभाव भी देखा जाता है।
षटद्रव्यों की चर्चा करने से पूर्व यह विचार कर लेना आवश्यक है कि विश्व के मूलभूत घटकों के सम्बन्ध में भारतीय और पाश्चात्य
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