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________________ १४३ विशिष्ट अर्थ का सूचक है। ‘पंचास्तिकाय' की टीका में कहा गया है 'कायत्वमाख्ये सावयवत्वं' अर्थात् अवयवयुक्त द्रव्य 'काय' है।' अस्तिकाय के प्रसंग में ‘कायत्व' का एक अर्थ विस्तारयुक्त होना भी है अर्थात् जो द्रव्य विस्तारवान हैं वे अस्तिकाय हैं तथा जो द्रव्य विस्तार रहित हैं वे अनस्तिकाय हैं। प्रस्तुत प्रसंग में विस्तार से तात्पर्य है कि जो द्रव्य अवयवी हैं वे अस्तिकाय हैं और जो द्रव्य निरवयवी हैं, वे अनस्तिकाय हैं। अवयवी द्रव्य से तात्पर्य उन द्रव्यों से है, जिनमें स्कन्ध, देश और प्रदेश अर्थात् विभिन्न अंशों की कल्पना की जा सकती है। 'विस्तारवान द्रव्य अस्तिकाय है यह परिभाषा धर्म, अधर्म, आकाश एवं परमाणु को छोड़कर अन्य पुद्गल द्रव्य में तो घट जाती है पर परमाणुरूप पुदगल द्रव्य निरंश होने से यह परिभाषा वहां अव्याप्त है । पुद्गल के ही एक प्रकार परमाणु - पुद्गल में परिभाषा घटित न होने से अस्तिकाय की यह परिभाषा दूषित प्रतीत होती है क्योंकि निरवयव द्रव्य का विस्तार असंभव होने से परमाणु अस्तिकाय नहीं माना जायेगा । इसका समाधान यह है कि परमाण भी स्कन्धरूप से परिणत होकर सावयवत्व को प्राप्त होता है। अतः उपचार से परमाणु को भी अस्तिकाय माना जा सकता है। यहां यह ज्ञातव्य है कि यह विस्तार दो प्रकार का होता है - (१) ऊर्ध्वप्रचय और (२) तिर्यक्प्रचय - जैनपरम्परा के अनुसार काल में मात्र ऊर्ध्वरेखीय विस्तार है, उसमें बहु आयामी विस्तार नहीं है। इसलिये उसे अनस्तिकाय माना गया है। जैनदार्शनिकों ने केवल उन्हीं द्रव्यों को अस्तिकाय कहा है जो बहुआयामी विस्तारवान हैं। सामान्य भाषा में यदि हम कहें तो जिसमें लम्बाई, चौड़ाई एवं मोटाई ये तीनों आयाम हों; वे बहुआयामी विस्तारवाले द्रव्य हैं और इन्हें ही अस्तिकाय द्रव्य कहा गया है। एक अन्य दृष्टि से जो द्रव्य स्कन्धरूप में परिणत होने की सामर्थ्य रखते हैं वे ही अस्तिकाय हैं। यहां यह ज्ञातव्य है कि जैनपरम्परा के अनुसार काल में स्कन्धरूप परिणत होने की सामर्थ्य नहीं है; उसका प्रत्येक कालाणु अपना स्वतन्त्र अस्तित्त्व - रखता है, अतः उसे अस्तिकाय नहीं माना जा सकता है। ७ पंचास्तिकाय, गाथा ५ (टीका पृष्ठ २५) । 'द्रव्यानुयोग' - भाग १, भूमिका, पृष्ठ ३३ - डॉ. सागरमल जैन। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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