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शब्द विश्व-व्यवस्था के सन्दर्भ में व्यवहृत हुआ है। ऋषिभाषित और भगवती में लोक को पंचास्तिकाय रूप कहा गया है।'
उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठावीसवें अध्ययन में अस्तिकायधर्म तथा छत्तीसवें अध्ययन में विभिन्न अस्तिकायों का विवेचन है। इसके अतिरिक्त सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग आदि आगमों में भी 'अस्तिकाय' के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
. 'अस्तिकाय' शब्द 'अस्ति' एवं 'काय' इन दो शब्दों के संयोजन से निष्पन्न हुआ है। स्थानांग एवं भगवती की वृत्ति में अस्तिकाय को निम्न दो प्रकार से व्याख्यायित किया गया है -
(१) 'अस्ति' शब्द को निपातनात् सिद्ध मानकर उसे सत्ता का वाचक माना है । इसमें अस्ति का अर्थ जो 'थे, हैंऔर 'होंगे' तथा 'काय' का अर्थ 'प्रदेशों का समूह' किया गया है, इस प्रकार त्रैकालिक अस्तित्ववान् प्रदेश-समूह अस्तिकाय है।
(२) 'अस्ति' का अर्थ 'प्रदेश एवं 'काय' का अर्थ राशि या समूह किया गया है, इस प्रकार प्रदेशों की समूहरूप संरचना को अस्तिकाय कहा गया है।
सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थभाष्य की टीका में अस्तिकाय शब्द की नवीन व्याख्या प्रस्तुत की है। उन्होंने 'अस्ति' का अर्थ 'ध्रौव्य' तथा 'काय' का अर्थ परिवर्तन है अस्तिकाय शब्द को उन्होंने उत्पाद् एवं व्यय का वाचक माना है। इस प्रकार 'अस्तिकाय' शब्द वस्तु की उत्पाद, व्यय एवं ध्रौव्यात्मकता को प्रकट करता है।
सामान्यतः प्रदेशप्रचयत्व को 'अस्तिकाय' कहा जाता है अर्थात् जिन तत्त्वों का लोक में विस्तार या प्रदेश प्रचयत्व होता है, वे अस्तिकाय कहलाते हैं।
अस्तिकाय शब्द का सामान्य अर्थ करने पर अस्ति शब्द सत्ता या अस्तित्व का एवं काय शब्द शरीर का वाचक प्रतीत होता है। इस प्रकार जो शरीर रूप से अस्तित्ववान है वे अस्तिकाय हैं। ज्ञातव्य है कि यहां 'काय' शब्द एक
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२ भगवती २/१०/१२४
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ११४) ।। ३ (क) उत्तराध्ययनसूत्र - २८/२७; (ख) उत्तराध्ययनसूत्र - २६/५ । ४ (क) सूत्रकृतांग २/१/२७
- (अंगसुत्ताणि लाडनूं, खण्ड १, पृष्ट ३५६); (ख) स्थानांग ४/६६ एवं १०० - (अंगसुत्ताणि लाडन, खण्ड १, पृष्ठ ६०५); (ग) समवायांग ५/१५
- (अंगसुत्ताणि लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ.६३३) । ५ देखिए पत्राचार (एम. ए. पूर्वार्द्ध, लाडनूं)। ६ देखिए आर्हतीदृष्टि, पृष्ठ ६०
- समणी मंगलप्रज्ञा ।
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