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उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित तत्त्वमीमांसीय अवधारणायें
तत्त्वमीमांसा दार्शनिक-चिन्तन का एक प्रमुख अंग है, वस्तुतः जीवन एवं जगत के सम्बन्ध में जानने की जिज्ञासा ने दर्शन को जन्म दिया है। तत्त्वमीमांसा का कार्य विश्व के स्वरूप तथा उसके मूलभूत घटक या घटकों की व्याख्या करना है। विभिन्न दर्शनों में विश्व के मूलभूत घटकों को द्रव्य, सत्, पदार्थ, तत्त्व आदि नामों से पुकारा गया है। जैनग्रन्थ बृहद्नयचक्र में सत्, तत्त्व, परमार्थ, द्रव्य, स्वभाव, परापर, ध्येय, शुद्ध और परम इन सभी को एकार्थक या पर्यायवाची माना गया है।
जहां तक हमारे शोधग्रन्थ के आधार उत्तराध्ययनसूत्र का प्रश्न है, इसमें विश्व के मूलभूत घटकों के सम्बन्ध में पांच अस्तिकायों, षद्रव्यों एवं नवतत्त्वों का निर्देश मिलता है। फिर भी इसके मुख्य विवेच्य विषय षद्रव्य और नवतत्त्व रहे हैं, क्योंकि षद्रव्यों की अवधारणा में पंचास्तिकायों का भी समावेश है। अतः उत्तराध्ययनसूत्र में पांच अस्तिकायों का निर्देश होते हुए भी उनका विवेचन षद्रव्यों की अवधारणा के साथ ही किया गया है। पंचास्तिकाय की अवधारणा जैन तत्त्वमीमांसा की मौलिक एवं प्राचीन अवधारणा है और षद्रव्यों की अवधारणा का विकास उसी से हुआ है, अतः सर्वप्रथम हम उसी का विवेचन करेंगे।
४.१ पंचास्तिकाय की अवधारणा
'अस्तिकाय' शब्द जैनपरम्परा का पारिभाषिक एवं प्राचीन शब्द है। प्राचीन स्तर के आगम साहित्य में इसका प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया है। यह
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सतं तह परमटुं दव्वसहाय तहेव परमपरं । व शुद्ध परमं एयट्ठा हुंति अभिहणा ।।' • नयचक्र ४११ (उद्धृत द्रव्यानुयोग, भाग १, भूमिका, पृष्ठ २६-डॉ. सागरमल जैन) ।
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