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________________ १३८ प्रमाणव्यवस्थायुग : जैनदर्शन में आगमयुग से अनेकान्तयुग में सरकती हुई 'प्रमाणमीमांसा शनैः शनैः विकसित होती चली गई तथा प्रमाणव्यवस्थायुग में उसने स्पष्टतः व्यवस्थित रूप प्राप्त कर लिया। इस युग में जब अन्य सभी दार्शनिक इन्द्रिय एवं मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष मान रहे थे, तब जैनदार्शनिकों ने स्वमान्यता को सुरक्षित रखते हुए प्रत्यक्ष को दो भागों में विभाजित कर दिया - १. सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष एवं २. पारमार्थिकप्रत्यक्ष। सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष के अन्तर्गत इन्द्रिय एवं मनोजन्य ज्ञान को स्वीकार किया गया तथा आत्मसापेक्ष या अतीन्द्रियजन्य ज्ञान को पारमार्थिकप्रत्यक्ष के रूप में स्वीकार किया गया । विद्वानों का मत है कि इस मान्यता का आधार 'नन्दीसूत्र' है; क्योंकि 'नन्दीसूत्र' में प्रत्यक्ष के दो भेद किये गये हैं; यद्यपि नोइन्द्रिय प्रत्यक्ष को मानसिकप्रत्यक्ष न मानकर आत्मिकप्रत्यक्ष ही माना गया है। इन्द्रियजन्यः एवं मनोजन्यज्ञान को सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष नाम देने का श्रेय जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण (सातवीं शती) को है। वस्तुतः जैनदर्शन में प्रमाणव्यवस्था का प्रारम्भ आयार्य अकलंक देव (आठवीं शती) से ही होता है। आचार्य अकलंक देव के पश्चात् विद्यानन्द, सिद्धर्षि, अनन्तवीर्य, वादिराजसूरि, अभयदेवसूरि, वादिदेवसूरि, प्रभाचंद्र, माणिक्यनन्दि, हेमचंद्र आदि अनेक आचार्यों ने प्रमाणशास्त्र पर अनेक स्वतन्त्र ग्रन्थों एवं टीकाओं की रचना के द्वारा प्रमाणमीमांसा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। नव्यन्याययुग : न्यायदर्शन के क्षेत्र में जब तेरहवीं शती में आचार्य गंगेश द्वारा नव्यन्याय की शैली विकसित हुई तो उसके प्रभाव से जैनन्याय के क्षेत्र में भी नव्यन्याय शैली का प्रयोग हुआ । नव्यन्याय के निरूपण में उपाध्याय यशोविजयजी (सत्रहवीं शती) का महत्त्वपूर्ण योगदान है। इनके ग्रन्थ- 'जैनतर्कभाषा', 'ज्ञानबिन्दु', 'अष्टसहस्त्रीतात्पर्यविवरणं' और 'शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका' में नव्यन्याय शैली का विशिष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। पं. विमलदास की कृति “सप्तभंगीतरंगिणी' भी नव्यन्याय शैली पर ही आधारित है। इस प्रकार जैनदर्शन में प्रमाणमीमांसा सम्बन्धी चर्चा आगमयुग से लेकर सभी कालों में उपलब्ध होती है। यह सब विस्तृत विवेचन का विषय है। चूंकि प्रस्तुत शोधप्रबन्ध का विषय उत्तराध्ययनसूत्र तक सीमित है जिसमें प्रमाण शब्द के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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