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उनका प्रतिस्थापन प्रमाणचर्चा के प्रसंग में जैन दार्शनिकों की मौलिक सूझ का परिचायक है; यद्यपि यह परवर्ती घटना है। आगमयुग का प्रमाणवाद मुख्यतः सांख्य और न्यायवैशेषिक दर्शन से प्रभावित रहा है।
अनेकान्त युग :
अनेकान्त युग भी प्रमाणविषयक साहित्य से समृद्ध रहा है! आचार्य उमास्वाति (द्वितीय/तृतीय शताब्दी) ने 'तत्त्वार्थसूत्र में मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान को प्रमाण कहकर फिर प्रमाण के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष ऐसे दो भाग किये हैं; जिसमें प्रत्यक्ष के अन्तर्गत अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान तथा परोक्ष के अन्तर्गत मतिज्ञान और श्रुतज्ञान को वर्गीकृत किया गया है।
. आचार्य उमास्वाति ने अनुमान प्रमाण का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं किया है, किन्तु अनुमान के पक्ष, हेतु एवं उदाहरण इन तीनों अवयवों के आधार पर सूत्र रचना की है। यथा -
- मतिश्रुतावधयो विपर्यश्च
- सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धे; उदाहरण - उन्मत्तवत्
आचार्य उमास्वाति ने मतिज्ञान को परोक्षज्ञान ही माना था। पुनः उसके पर्यायवाची नामों में चिन्ता, विमर्श आदि का समावेश भी किया था, जो वस्तुतः अनुमान से सम्बन्धित ही प्रतीत होते हैं। . आचार्य उमास्वाति ज्ञानवाद और प्रमाणवाद के सन्दर्भ में वस्तुतः तो आगमिक परम्परा का ही अनुसरण करते हैं। अतः वे मुख्यतः आगमयुग के दार्शनिक हैं। उनके पश्चात् सिद्धसेन दिवाकर से अनेकान्त व्यवस्थायुग का प्रारम्भ होता है। ... आचार्य सिद्धसेन (विक्रम की चतुर्थ-पंचम शती) द्वारा रचित 'सन्मतितर्क का मुख्य प्रतिपाद्य अनेकान्तवाद है, फिर भी प्रमाणव्यवस्था के सन्दर्भ में उन्होंने एक द्वात्रिशिंका 'न्यायावतार' के नाम से निर्मित की है। इसमें आगमानुसार सांख्यदर्शन के समरूप प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम (शब्द) इन तीन प्रमाणों की चर्चा जैन दृष्टि से की है। जैनप्रमाणशास्त्र का प्रारम्भ इसी कृति से माना जाता है।
४२ तत्त्वार्थसूत्र १/३२ एवं ३३ ।
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