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________________ आगमयुग : सामान्यतः यह माना जाता है कि आगमयुग में प्रमाणचर्चा का अभाव था, किन्तु इस मान्यता पर पुनर्विचार की आवश्यकता है; क्योंकि जैनदर्शन में प्रमाण की परिभाषा में सर्वप्रथम आचार्य उमास्वाति ने 'पंचज्ञानों को प्रमाण कहा है; इस परिप्रेक्ष्य में आगमों का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि 'नन्दीसूत्र' में पांचज्ञानों का विस्तृत वर्णन है । यद्यपि 'नन्दीसूत्र' अपेक्षाकृत परवर्ती है, किन्तु उसके पूर्व उत्तराध्ययनसूत्र, स्थानांग, भगवती, राजप्रश्नीय आदि आगमों में भी आभिनिबोधिक (मति) ज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान का निरूपण किया गया है ।1 कालान्तर में यही ज्ञानवाद जैनदर्शन की स्वतन्त्र प्रमाणमीमांसा का आधार बना । केवल पंचज्ञानवाद ही नहीं आगमों में तो स्वतन्त्र रूप से भी 'प्रमाण' का उल्लेख मिलता है। भगवतीसूत्र, स्थानांगसूत्र एवं अनुयोगद्वारसूत्र में प्रमाण के तीन एवं चार प्रकार नाम सहित प्रतिपादित किये गये हैं; जिसका निर्देश पूर्व में किया जा चुका है। १३६ उत्तराध्ययनसूत्र में भी विस्ताररूचि सम्यक्त्व का लक्षण 'नय एवं प्रमाण से जानना किया गया है। यहां प्रमाण शब्द का बहुवचन के रूप में प्रयोग यह सिद्ध करता है कि उस काल में जैनों को एकाधिक प्रमाण मान्य थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि आगम-ग्रन्थों में ज्ञान के अर्थ में प्रमाण की तथा कुछ स्थलों पर स्वतन्त्र रूप से प्रमाण की चर्चा उपलब्ध होती है । यद्यपि विद्वानों की दृष्टि में यह विवाद का विषय बना हुआ है कि प्रमाणों की चर्चा करने वाले आगमों के ये अंश प्राचीन स्तर के हैं अथवा वल्लभीवाचना के काल में उनमें प्रक्षिप्त किये गये हैं। फिर भी इतना निश्चित है कि 'ज्ञानवाद' जैनों का अपना मौलिक सिद्धान्त है, जबकि जैनदर्शन में 'प्रमाणवाद' की चर्चा का विकास अन्य दर्शनों के प्रभाव के कारण हुआ है। यद्यपि इसमें भी जैनाचार्यों ने अपनी दार्शनिक सूझ एवं मौलिकता का परिचय दिया है। स्मृति, तर्क आदि प्रमाणों की स्वीकृति और ४१ उत्तराध्ययनसूत्र २८/४ (ख) स्थानांग ५/१८ भगवती ८/२/६७ (घ) राजप्रश्नीय ७३६ Jain Education International - ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ७१४); ( अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ ३३२ ) ; ( उवंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ १८२ ) । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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