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अट्ठाईसवें अध्ययन में 'प्रमाण' शब्द का उल्लेख किया गया है। यहां 'विस्ताररूचि-सम्यग्दर्शन' की चर्चा के अन्तर्गत वस्तु तत्त्व के जानने के साधन के रूप में प्रमाण और नय का उल्लेख हुआ है। इस आधार पर विद्वानों ने इस अध्ययन की प्राचीनता पर भी सन्देह किया है, किन्तु उत्तराध्ययनसूत्र के अतिरिक्त स्थानांग, भगवती, नन्दीसूत्र और अनुयोगद्वार में चार, तीन और दो प्रमाणों की चर्चा उपलब्ध होती है। यहां यह ज्ञातव्य है कि भगवती में जहां प्रमाण के नाम से प्रत्यक्ष, अनुमान, औपम्य और आगम ऐसे चार प्रमाणों की चर्चा मिलती है, वहीं स्थानांग में हेतु के नाम से इन्हीं चार प्रमाणों और व्यवसाय के नाम से 'औपम्य' को छोड़कर शेष तीन प्रमाणों की चर्चा मिलती है; किन्तु नन्दीसूत्र में प्रत्यक्ष और परोक्ष के नाम से दो प्रमाणों की चर्चा उपलब्ध होती है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में इन्हीं दो प्रमाणों की चर्चा की है।38
.जैनदर्शन में प्रमाणचर्चा का विकास
पं. सुखलालजी ने जैनदर्शन के ऐतिहासिक विकास को तीन भागों में विभाजित किया है – १. आगमयुग; २. संस्कृतिप्रवेश या अनेकान्तस्थापनयुग
और ३. न्यायप्रमाणस्थापन युग। पं. दलसुखभाई मालवणिया के अनुसार इसके चार विभाग किये गये हैं- १. आगमयुग; २. अनेकान्तस्थापनयुग; ३. प्रमाणस्थापनयुग और ४. नव्यन्याययुग। इस विभागीकरण के आधार पर हम प्रमाणमीमांसा की विकास यात्रा की चर्चा करेंगे।
३६ ‘दव्वाण सब्बभावा, सव्वपमाणेहिं जस्स उवलद्धा ।
'सव्वाहि नयविहीहि य, वित्थारुइ ति नायवो ।' - उत्तराध्ययनसूत्र २८/२४ । ३७ (क) स्थानांग ३/३६५, ४/५०४
- लाडनूं, पृष्ठ क्रमशः ५७७, ६६० । (ख) भगवती ५/४/६७
- (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ २०४) । (ग) नन्दीसूत्र ३
- (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ ३८६) । (घ) अनुयोगद्वार ५१५
- (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ २५१) । ३८ तत्त्वार्थसूत्र १/११ एवं १२ । ३६ दर्शन और चिन्तन' खण्ड १, पृष्ठ ३६२ - पं. सुखलालजी। ४० 'आगम युग का जैनदर्शन' पृष्ठ २८१ - पं. दलसुख मालवणिया ।
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