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________________ १३४ ७. महर्षि चरक प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति.. अभाव और युक्तिः प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव, युक्ति और एतिह्य । पौराणिकमत जहां तक जैनदर्शन का प्रश्न है, उसमें प्रमाणों की संख्या को लेकर विभिन्न मत दृष्टिगोचर होते हैं। आचार्य उमास्वाति ने 'प्रत्यक्ष' और 'परोक्ष ऐसे दो .. प्रमाणों की चर्चा की है जबकि “स्थानांगसूत्र' की आगमिक परम्परा का अनुसरणं करते हुए प्राचीन जैनदार्शनिक सिद्धसेनदिवाकर ने प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ऐसे तीन प्रमाण माने हैं और स्थानांग में हेतु और भगवतीसूत्र में प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान ऐसे चार प्रमाण मिलते है, जबकि अकलंक के काल से जैन दार्शनिक निम्न छ: प्रमाण मानने लगे हैं- १. प्रत्यक्ष २. स्मृति ३. प्रत्यभिज्ञा ४. ऊहा (तर्क) ५. अनुमान और ६. आगम। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दार्शनिकों ने प्रमाणों की संख्या को लेकर कालक्रम में भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किये हैं; फिर भी स्मृति, प्रत्यभिज्ञा, और ऊहा (तर्क) को प्रमाण मानने की जैनों की अपनी मौलिक परम्परा है। जैनदर्शन में प्रमाणवाद । जैनपरम्परा में प्राचीन काल में 'ज्ञानवाद' और 'प्रमाणवाद' अलग अलग नहीं थे। आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान को ही प्रमाण माना था। जैनदर्शन में पंचज्ञान की अवधारणा अति प्राचीन काल से चली आ रही थी। उसकी प्राचीनता कम से कम प्रभु पार्श्वनाथ के काल तक अर्थात् ई. पू. आठवीं शती तक जाती है। जहां तक जैनदर्शन में प्रमाण चर्चा का प्रश्न है, आचार्य उमास्वाति के काल तक अर्थात् ईसा की तीसरी शती से उसके संकेत मिलने लगते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में विविध स्थलों पर 'पंचज्ञानवाद' के तो अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। किन्तु प्रमाण शब्द के नामोल्लेख के सिवाय इसमें उसकी चर्चा का प्रायः अभाव है। इसके ३३ तत्त्वार्थसूत्र १/१ एवं १२ । ३४ देखिये - आगमयुग का जैनदर्शन पृष्ठ १३८ । ३५ (क) 'अहवा हेऊ वउव्हेि पण्णते तं जहा पच्चक्खे, अणुमाणे ओवम्मे, आगमे' (ख) 'पमाणे वउव्धिहे पण्णते तं जहा, पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवमाणे आगमे - स्थानांग ४/५०४ (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ६६०) । - भगवती ५/४/६७ (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड २, पृष्ठ २०४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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