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प्रमाण की परिभाषा में 'ज्ञान' शब्द का प्रयोग किया गया है। उसमें ज्ञान को ही प्रमाण माना गया है।
जैन दार्शनिकों के अनुसार जो जानता है वह ज्ञान प्रमाण है। अथवा 'स्व' और 'पर' को जानने वाला ज्ञान ही प्रमाण है।" इस परिभाषा का विशेष स्पष्टीकरण आचार्य सिद्धसेन के 'न्यायावतार' में मिलता है। वे लिखते हैं कि जो स्व-पर प्रकाशक और बाधाविवर्जित ज्ञान है, वही प्रमाण है।
सभी भारतीय दर्शन प्रमाण की संख्या के विषय में एकमत नहीं हैं, चार्वाकदर्शन एकमात्र 'प्रत्यक्ष को ही स्वीकार करता है। बौद्ध और वैशेषिकदर्शन प्रत्यक्ष एवं अनुमान इन दो प्रमाणों को मानते हैं। सांख्यदर्शन द्वारा प्रत्यक्ष, अनुमान
और आगम (शब्द) ये तीन प्रमाण स्वीकृत हैं। न्यायदर्शन प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान इस प्रमाण चतुष्टयी को मान्यता देता है। मीमांसादर्शन का प्रभाकर सम्प्रदाय उपर्युक्त चार प्रमाण सहित 'अर्थापत्ति को भी प्रमाण मानता है। इस प्रकार वह पांच प्रमाण मानता है, जबकि मीमांसादर्शन का भाट्टसम्प्रदाय और वेदान्त उपर्युक्त पांचों प्रमाणों के अतिरिक्त 'अभाव' को भी प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। महर्षि चरक ने 'युक्ति' सहित सात और पौराणिकों ने ‘ऐतिह्य' सहित आठ प्रमाण माने हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय-दार्शनिक प्रस्थानों में प्रमाणों की संख्या को लेकर भिन्न भिन्न दृष्टिकोण प्रचलित रहे हैं। इसे निम्न सारणी से समझा जा सकता है :
प्रमाण-संख्या
१.
दर्शन चार्वाकदर्शन बौद्ध, वैशेषिक सांख्यदर्शन न्यायदर्शन मीमांसादर्शन का प्रभाकरसम्प्रदाय मीमांसादर्शन का भाट्टसम्प्रदाय और वेदान्त
४. ५.
प्रत्यक्ष; प्रत्यक्ष और अनुमानः प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द; प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द और उपमान; प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति; प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान, अर्थापत्ति, और
अभावः
३० (क) 'मायते यत् तत् प्रमाणं'
- प्रमाणनयतत्त्वालोक टीका १/१। - (ख) 'तत् (ज्ञान) प्रमाणे
- तत्त्वार्थसूत्र १/१०। ३१ 'स्वपरव्यवसायी ज्ञानं प्रमाण'
- प्रमाणनयतत्त्वालोक। ३२ 'प्रमाणं स्वपराभासि मानं, वायविवर्जितम्' - न्यायावतार ।
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