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दूसरों के मनोगत भावों को साक्षात्/प्रत्यक्ष जानता है वहीं मनोवैज्ञानिक हाव – भाव आदि संकेतों के माध्यम से दूसरों के मनोगत भावों का अनुमान लगाता है। अनुमानित ज्ञान में सम्भावित सत्य होता है प्रमाणित नहीं। पुनश्च मनोवैज्ञानिक मिथ्या-दृष्टि भी हो सकता है; जबकि मनःपर्यवज्ञानी निश्चित रूप से सम्यक-दृष्टि और संयमी ही होता है।
५. केवलज्ञान उत्तराध्ययनसूत्र की टीका के अनुसार केवलज्ञान एकमात्र (केवल) विशुद्ध, सकल (सम्पूर्ण), असाधारण और अनन्त होता है।
इसे. एक कहने का तात्पर्य यह है कि केवलज्ञान के प्रकट हो जाने पर शेष चारों ज्ञानों का महत्त्व नहिंवत् हो जाता है। जैसे सूर्य के प्रकाश में तारों के प्रकाश का कोई अर्थ नहीं रह जाता; उसी प्रकार केवलज्ञान के होने पर अन्य चारों ज्ञानों की कोई उपयोगिता नहीं रह जाती है।
केवलज्ञान का विषय त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य तथा उनकी समस्त पर्यायें है। यह ज्ञान प्रकट होने के बाद कभी नष्ट नहीं होता है।
प्रमाणवाद
प्रमाण की परिभाषा :
'प्रमाण' की परिभाषा के सन्दर्भ में मुख्यतः दो दृष्टिकोण प्रस्तुत होते हैं। कुछ दार्शनिकों का मानना है – 'प्रमा करणं प्रमाणं' अर्थात् यथार्थ ज्ञान का जे कारण है, वह प्रमाण है" अथवा 'प्रमीयतेऽनेन प्रमाणं जिनके द्वारा ज्ञान होता है । प्रमाण हैं। इस प्रकार इन परिभाषाओं में ज्ञान के साधन या करण ही प्रमाण मा गये हैं।28 नैयायिक 'प्रमा' के साधकतम कारण इन्द्रियों और सन्निकर्ष को मानते हैं उनके अनुसार अर्थोपलब्धि का हेतु प्रमाण है। जैन एवं बौद्ध दार्शनिक ज्ञान को प्रमाण का साधकतम कारण मानते हैं, सन्निकर्ष को नहीं। जैनदर्शन सम्म
२६ 'केवलमेकमकलुषं सकलसाधारणमनन्तं च ज्ञानमिति प्रक्रमः' - उत्तराध्ययनसूत्र टीका (शान्त्याचार्य) पत्र -५५७ । २७ तर्कभाषा, पृष्ठ ११ । २८ न्यायभाष्य १.१.३
- (उद्धृत् तर्कभाषा, पृष्ठ ११) । २६ 'अर्थोपलब्धि हेतुः प्रमाणम्'
- न्यायवार्तिक (उद्धृत जैन न्याय का विकास पृष्ठ ८२) ।
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