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(४) हीयमान: परिणामों में संक्लिष्टता आ जाने के कारण जो अवधिज्ञान क्षेत्र एवं विषय की अपेक्षा क्रमशः हीन, हीनतर एवं हीनतम होता जाता है वह अवधिज्ञान हीयमान अवधिज्ञान कहलाता है।
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(५) प्रतिपाती : जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद पुनः चला जाय या नष्ट हो जाये; वह प्रतिपाती अवधिज्ञान कहलाता है।
(६) अप्रतिपाती : जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के बाद जीवनपर्यन्त बना रहे अथवा केवलज्ञान की प्राप्ति तक बना रहे वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान होता है।
४. मनः पर्यवज्ञान
मन की पर्यायों को साक्षात् करने वाला ज्ञान मनः पर्यवज्ञान कहलाता है। 24 मनोवर्गणा के पुद्गलों से जो मानसप्रत्यय निर्मित होते हैं उनको जानने की सामर्थ्य मनःपर्यवज्ञान में होती है।
मनःपर्यवज्ञान का विषय भी मूर्त है; क्योंकि मनोवर्गणायें, जिनसे मानसिक प्रत्यय बनते हैं, वे पौद्गलिक या मूर्त हैं। मनोवर्गणाओं से निर्मित मनोभावों को जानने की शक्ति मनःपर्यवज्ञान है अर्थात् मन में जिस वस्तु का विचार आता है और उससे जो मानस - प्रतिबिंब बनता है, उस प्रतिबिंब का ज्ञान मनः पर्यवज्ञान है। मनःपर्यवज्ञान भी दो प्रकार के होते हैं,
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(अ) ऋजुमति - अपने विषय का सामान्य रूप से प्रत्यक्ष करने वाला मनः पर्यवज्ञान ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान कहलाता है।
(ब) विपुलमति- अपने विषय का सूक्ष्म रूप से प्रत्यक्ष करने वाला ज्ञान विपुलमति मनःपर्यबज्ञान कहलाता है। ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी की अपेक्षा विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी का ज्ञान विपुलतर एवं विशुद्धतर होता है।
ऋजुमति मनःपर्यवज्ञान प्रतिपाती है अर्थात् आकर पुनः जा सकता है; किन्तु विपुलमति मनःपर्यवज्ञान अप्रतिपाती है अर्थात् विलुप्त नहीं होता हैं। 25 विपुलमति मनःपर्यवज्ञानी केवलज्ञानी होकर तद्भव मोक्षगामी होते हैं। यहां ध्यातव्य है कि आधुनिक मनोवैज्ञानिक मनः पर्यवज्ञानी नहीं हैं, क्योंकि जहां मनःपर्यवज्ञानी
२४ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ५५७ २५ ‘विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः '
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- ( शान्त्याचार्य)
- तत्त्वार्थसूत्र १/२५ ।
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