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________________ ३. अवधिज्ञान सीमित क्षेत्र में रहे हुए रूपीद्रव्य अर्थात् पौद्गलिक संरचनाओं का आत्मा के द्वारा होने वाला ज्ञान अवधिज्ञान है। यह मूर्त द्रव्यों का अतीन्द्रिय या साक्षात् ज्ञान है किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की मर्यादा या सीमा विशेष से बंधा हुआ है। अतः इसे अवधिज्ञान कहा जाता है। अवधिज्ञान के दो प्रकार हैं - १. भवप्रत्यय और २. गुणप्रत्यय। १. भवप्रत्यय : यह जन्मजात होता है। देवलोक एवं नरक में होने वाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय अवधिज्ञान है क्योंकि देवगति एवं नरकगति के जीवों में जन्म से ही यह ज्ञान होता है। २. गुणप्रत्यय : वर्तमान जीवन में विशिष्ट साधना के आधार पर उपलब्ध होने वाला अवधिज्ञान गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है। यह संज्ञी मनुष्य एवं तिर्यंच को ही होता है। गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के निम्न छ: प्रकार हैं- (१) अनुगामी : जो व्यक्ति के साथ साथ गमन करे, जैसे सूर्य के साथ प्रकाश, चन्द्रमा के साथ चांदनी गमन करती है । जहां अवधिज्ञानी जाये वहां उसके साथ उसका अवधिज्ञान भी रहता है तो वह अनुगामी अवधिज्ञान कहलाता है। (२) अननुगामी : जो व्यक्ति के साथ साथ नहीं चलता है पर जिस स्थान पर ज्ञान उत्पन्न हुआ है उस स्थान पर स्थित होने तक ही रहता है अर्थात् जो अवधिज्ञान उत्पत्ति क्षेत्र में ही रहता है उससे अतिरिक्त नहीं, वह अननुगामी अवधिज्ञान है। यह ज्ञान क्षेत्र रूप बाह्य निमित्त से होता है; अतएव अवधिज्ञानी जब अन्यत्र जाता है तो क्षेत्र-रूप निमित्त के नहीं रहने से वह ज्ञान भी लुप्त हो. जाता है। (३) वर्धमान : उत्पत्तिकाल के बाद जिस ज्ञान का क्षेत्र क्रमशः बढ़ता रहता है वह वर्द्धमान अवधिज्ञान होता है। जैसे अग्नि को ज्यों ज्यों ईंधन मिलता जाता है, वह प्रज्ज्वलित होती जाती है। उसी प्रकार ज्यों ज्यों परिणामों में विशुद्धि आती जाती है, अवधिज्ञान भी क्षेत्र, विषय, आदि की अपेक्षा से वृद्धि को प्राप्त होता जाता है। यह वर्द्धमान अवधिज्ञान है। २३ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५५७ - (शान्त्याचार्य) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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