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________________ १२६ मुख्यतः दो प्रकार का माना गया है- १. अंगप्रविष्ट और २. अनंगप्रविष्ट। इसकी पुष्टि उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठावीसवें अध्ययन की इक्कीसवीं गाथा से होती है।" आचार्य उमास्वाति ने 'तत्त्वार्थसूत्र' में श्रुतज्ञान के प्रथम दो भेद और फिर उनके द्वादश एवं अनेक भेदों का निरूपण किया है। इसमें दो भेद, अंग और अंगबाह्य ग्रन्थों के आधार पर किये गये हैं। अंगग्रन्थों की संख्या बारह होने से अंगविषयक श्रुतज्ञान बारह प्रकार एवं अंगबाह्य ग्रन्थों की संख्या अनेक होने से अंगबाह्य श्रुतज्ञान अनेक प्रकार का कहा गया है। श्रुतज्ञान का महत्त्व उत्तराध्ययनसूत्र के 'बहुश्रुत' नामक अध्ययन में प्रतिपादित किया गया है। २. मति/आमिनिबोधिक ज्ञान इन्द्रिय एवं मन की सहायता से होने वाला ज्ञान आभिनिबोधिक ज्ञान है। उत्तराध्ययनसूत्र के टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार, जिसके द्वारा योग्य देश एवं काल में अवस्थित वस्तु का निश्चयात्मक बोध होता है, वह आभिनिबोधिक ज्ञान है। नन्दीसूत्र में ईहा, अपोह, विमर्श, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति, प्रज्ञा एवं बुद्धि को आभिनिबोधिक ज्ञान का पर्यायवाची माना गया है तथा इसके श्रुतनिश्रित एवं अश्रुतनिश्रित ऐसे दो भेद किये गये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता एवं आभिनिबोध को · एकार्थक माना गया है। इसमें अवग्रहरूप जो इन्द्रियबोध है वह अश्रुतनिश्रित है और विमर्श, चिन्ता आदि रूप जो मतिज्ञान है वह श्रुतनिश्रित है; क्योंकि भाषा पर आधारित है। १७ 'अंगेण बाहिरेण व, सो सुतस्इ ति नायव्बो ।।' - उत्तराध्ययनसूत्र २८/२१ । । ८ तत्त्वार्थसूत्र - १/२०। १६ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र -५५७ - (शान्त्याचाय)। २० नन्दीसूत्र - ५४/६ - (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ २६३) । सनन्दीसूत्र - ३७ - (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ २५८) । २२ तत्वार्थसूत्र १/१३ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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