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- इस प्रकार पांच ज्ञानों में श्रुतज्ञान ही सम्प्रेषणीय है, उसके द्वारा . जिनशासन की परम्परा चलती है। अन्य ज्ञानों में विचारों एवं भावों का आदान-प्रदान नहीं हो सकता। श्रुतज्ञान के द्वारा ही ज्ञान का आदान-प्रदान किया जा सकता है। ये कुछ कारण श्रुतज्ञान की प्राथमिकता के आधार हो सकते हैं।
उपर्युक्त पंचज्ञानों में पूर्व के दो ज्ञान (श्रुत एवं मति) इन्द्रिय और मन की सहायता से होने वाले ज्ञान हैं एवं शेष तीन ज्ञान (अवधि, मनःपर्यव और केवल). अतीन्द्रिय अर्थात् आत्मिक ज्ञान हैं। यद्यपि उत्तराध्ययनसूत्र में इनके स्वरूप आदि पर विशेष चर्चा नहीं की गई है फिर भी इसमें हमें पंचज्ञानवाद के सम्बन्ध में कुछ संकेत अवश्य उपलब्ध होते हैं। उत्तराध्ययनसूत्र के तेवीसवें अध्ययन में जहां आर्य केशीश्रमण को अवधिज्ञान और श्रुतज्ञान का धारक बताया गया है वहां आर्य गौतम को बारह अंगों का वेत्ता कहा गया है। यद्यपि श्रुतज्ञान का धारक होना और बारह अंगों का वेत्ता होना एक ही अर्थ का द्योतक है, अतः पूर्वोक्त दोनों श्रमणों के लिये भिन्न-भिन्न विशेषणों का प्रयोग विमर्शनीय है । प्रभु पार्श्व की परम्परा पूर्वविदों की परम्परा है जबकि प्रभु महावीर की परम्परा अंगविदों की परम्परा है। यही कारण है कि इसमें जहां केशीश्रमण को श्रुतज्ञान का धारक कहा वहीं गौतम गणधर को अंगो का वेत्ता कहा गया है।
उत्तराध्ययनसूत्र के अट्ठावीसवें अध्ययन में पंचज्ञानों का स्पष्ट निर्देश है। पुनः इसके उनतीसवें अध्ययन में श्रुतज्ञान के महत्त्व एवं स्वाध्याय के सम्बन्ध में. विशेष चर्चा हुई है। यहां ज्ञातव्य है कि उत्तराध्ययनसूत्र के सभी टीकाकारों ने पंचज्ञानों के स्वरूप पर प्रकाश डाला है । इन सब के आधार पर हम यहां कमशः पांचों ज्ञान के स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कर रहे हैं।
१. श्रुतज्ञान श्रुतज्ञान का सामान्य अर्थ संकेतजन्य शब्दज्ञान या भाषायीज्ञान है। वस्तुतः ध्वनि-संकेतों द्वारा होने वाला अर्थबोध अथवा ज्ञान श्रुतज्ञान है, परन्तु सम्यक श्रुतज्ञान तो आप्तपुरूषों द्वारा उपदिष्ट आगमों का ज्ञान है। आप्तपुरूष द्वारा उपदिष्ट आगम के मुख्यतः दो प्रकार माने गये हैं - अंग और अंगबाह्य । अतः श्रुतज्ञान भी
१५ उत्तराध्ययनसूत्र - २३/३ एवं ६ । १६ उत्तराध्ययनसूत्र - २६/१६, २५ व ६० ।
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