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___ यहां ज्ञातव्य है कि साधारणतः जैनदर्शन के अन्तर्गत पंचज्ञान का वर्णन मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल इस क्रम में मिलता है अर्थात् मतिज्ञान का क्रम श्रुतज्ञान से पूर्व होता है, परन्तु उत्तराध्ययनसूत्र में श्रुतज्ञान के बाद आभिनिबोधिक (मतिज्ञान) का उल्लेख हुआ है। पुनः इसी ग्रन्थ के तैंतीसवें अध्ययन की चौथी गाथा में भी यही क्रम प्राप्त होता है - श्रुतज्ञानावरण, आभिनिबोधिकज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्यवज्ञानावरण और केवलज्ञानावरण। इस सन्दर्भ में उत्तराध्ययनसूत्र टीकाकारों का अभिमत है कि शेष सभी ज्ञानों (मति, अवधि, मनःपर्यव और केवल) के स्वरूप का ज्ञान 'श्रुतज्ञान' के माध्यम से होता है अतः इसकी प्रधानता दिखलाने के लिये इसे पूर्व में रखा गया है।" अनुयोगद्वार में भी कहा गया है कि अन्य चारों ही ज्ञान स्थापनीय हैं अर्थात् उनका स्वतः सम्प्रेषण नहीं होता है। वे मात्र अनुभूति रूप होते हैं अभिव्यक्ति रूप नहीं; किन्तु पांचों ज्ञानों में श्रुतज्ञान ही एक ऐसा ज्ञान है जिसके माध्यम से उसका स्वयं का एवं अन्य चारों ज्ञानों का सम्प्रेषणं सम्भव होता है।
आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार छंद-योजना की अपेक्षा से भी क्रम-परिवर्तन सम्भावित है। आचार्यश्री की यह टिप्पणी इसलिए युक्तिसंगत नहीं लगती कि इनके क्रम परिवर्तन से छंद में कोई दोष नहीं आता है, क्योंकि दोनों शब्द एक ही चरण में हैं। .. मतिज्ञान मूलतः विमर्शात्मक या चिन्तनपरक होता है और चिन्तन भाषा के अभाव में सम्भव नहीं होता। अतः श्रुतज्ञान (भाषिक ज्ञान) मतिज्ञान के लिए आवश्यक है। यद्यपि सामान्यतः ‘मतिपूर्वकं श्रुतं' कहकर उमास्वाति आदि आचार्यों ने मतिज्ञान को श्रुतज्ञान के पूर्व रखा है, किन्तु नन्दीसूत्र में मतिज्ञान का एक प्रकार श्रुतनिश्रित भी माना गया है और श्रुतनिश्रित मतिज्ञान श्रुतज्ञानपूर्वक ही होता है। अतः उत्तराध्ययनसूत्र का यह क्रम किसी अपेक्षा से युक्तिसंगत प्रतीत होता है।"
१ 'शेषज्ञानानामपि स्वरूपज्ञानं प्रायः श्रुताधीनमिति
तस्य प्राधान्यख्यापनार्थ पूर्व तदुपादानमिति'
१२ अनुयोगद्वारसूत्र -२ १३ 'उत्तरज्मपणाणि
१४ व्यक्तिगत चर्चा के आधार पर । Jain Education International
- उत्तराध्ययनसूत्र टीका (आगमपंचांगी क्रमः ४१/५) पत्र २७६४, २७६८;
२७८२ एवं २७८५ । - (नवसुत्ताणि, लाडनूं, पृष्ठ २६१) । - युवाचार्य महाप्रज्ञ, द्वितीय भाग पृष्ठ १४० ।
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