________________
'१२६
ज्ञान की महत्ता को प्रतिपादित करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में यह पूछा गया है कि 'श्रुत' अर्थात् ज्ञान की आराधना से जीव को क्या प्राप्त होता है ? इसके प्रत्युत्तर में कहा गया है कि 'श्रुत' की आराधना से अज्ञान का क्षय/नाश होता है और अज्ञान के क्षय होने से जीव राग-द्वेष एवं इच्छाओं के द्वारा उत्पन्न होने वाले संक्लेशों से पीड़ित नहीं होता। पुनः उसी अध्ययन के साठवें सूत्र में ज्ञान की महत्ता को स्थापित करते हुए कहा गया है कि जिस प्रकार ससूत्र अर्थात् धागे में पिरोई हुई सूई गिर जाने पर भी गुम नहीं होती पुनः शीघ्र प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार ससूत्र अर्थात् ज्ञान सहित जीव संसार में विनष्ट नहीं होता। ज्ञान के माध्यम से वह विनय, चारित्र, तप आदि को सम्पादित कर स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्त में निष्णात बन जाता है और उसके फलस्वरूप मोक्षमार्ग का सम्यक प्रकार से ज्ञाता होता है। मात्र यही नहीं उत्तराध्ययनसूत्र में तो यहां तक कहा गया. है कि ज्ञान के माध्यम से ही आत्मा को एकान्त सुखरूप 'मोक्ष की प्राप्ति होती है। उसमें कहा गया है कि सम्पूर्ण ज्ञान का प्रकाश, अज्ञान और मोह का विवर्जन कर देता है; परिणामस्वरूप राग द्वेषरूप जो अज्ञान या मोह है वह नष्ट हो जाता है। अब हम अग्रिम पृष्ठों में ज्ञान के पांच प्रकार एवं उनके स्वरूप की चर्चा प्रस्तुत करेंगे।
3.1 पंचज्ञानवाद
जैनदर्शन में ज्ञान के निम्न पांच प्रकारों का उल्लेख मिलता है - १. श्रुतज्ञान (आगमज्ञान); २. आभिनिबोधिकज्ञान (इन्द्रिय एवं मनोजन्यज्ञान) या मतिज्ञान; ३. अवधिज्ञान (मर्यादित रूपी पदार्थ विषयक आत्मिक ज्ञान); ४. मनः पर्यवज्ञान (मन की पर्यायों को जानने वाला ज्ञान) और ५. केवलज्ञान (परिपूर्ण एवं सुविशुद्ध ज्ञान)।
- उत्तराध्ययनसूत्र -२६/६०। . .
८ उत्तराध्ययनसूत्र २६/२५ । ६ 'जहा सुई ससुत्ता पडिया वि न विणस्सइ । तहा जीवे ससुत्ते, संसारे न विणस्सइ ।'
नाण-विणयतव-चरित्तजोगे संपाउणइ, ससमय-परसमयसंघायणिज्जे भवइ। १० 'नाणस्स सबस्स, पगासणाए,
अन्नाणामोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्खं समुवेइ मोक्खं ।'
- उत्तराध्ययनसूत्र ३२/२ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org