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________________ १२५ माना गया है। दशवैकालिकसूत्र में भी कहा गया है कि साधना के क्षेत्र में ज्ञान का प्रथम स्थान है, ज्ञान के अभाव में साधना सम्भव नहीं।' उत्तराध्ययनसूत्र की जिन गाथाओं में ज्ञान को प्रथम स्थान दिया गया है वह भी सम्भवतः इसी अपेक्षा से है। इसके अट्ठाइसवें अध्ययन की प्रथम, दूसरी, तीसरी, ग्यारहवीं और पैंतीसवीं गाथाओं में ज्ञान को दर्शन, चारित्र और तप की अपेक्षा प्रथम स्थान दिया गया है। मात्र पच्चीसवीं और तीसवीं गाथा में 'दर्शन' को प्रथम और 'ज्ञान' को उसके बाद स्थान दिया गया है। किन्तु तीसवीं गाथा में जहां दर्शन शब्द को ज्ञान से पूर्व रखा गया है, वहां 'दर्शन' का आशय 'सम्यग्दर्शन' या 'श्रद्धा' न होकर 'अनुभूति' है, क्योंकि ज्ञान के लिए अनुभूति अपरिहार्य होती है। अतः इस दृष्टि से ज्ञान से पूर्व 'दर्शन' को रखना समुचित है; किन्तु जब हम 'दर्शन' का अर्थ 'श्रद्धा' करते हैं तो उसका स्थान ज्ञान के बाद ही होगा अन्यथा वह 'श्रद्धा' ज्ञान के अभाव में अंधश्रद्धा होगी। सही अर्थ में ज्ञान के अभाव में श्रद्धा सम्भव ही नहीं होती । इस आधार पर पैंतीसवीं गाथा में यह कहा गया है कि ज्ञान से तत्त्व को जाने एवं दर्शन से उस पर श्रद्धा रखे। इससे यह स्पष्ट हो जाता है यदि हम 'दर्शन' शब्द का अर्थ 'अनुभूति' न लेकर 'तत्त्वश्रद्धा' लेते हैं तो उत्तराध्ययनसूत्रकार का स्पष्ट अभिमत है कि श्रद्धापरक अर्थ में 'दर्शन' का स्थान 'ज्ञान' के पश्चात् ही होगा। इस तथ्य की पुष्टि इस आधार पर भी होती है कि उत्तराध्ययनसूत्र के उनतीसवें अध्ययन में 'ज्ञान-सम्पन्नता' के बाद ही 'दर्शन-सम्पन्नता' का क्रम रखा गया है। अतः उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध सन्दर्भो के आधार पर हम यह कह सकते है कि जहां दर्शन शब्द को श्रद्धापरक अर्थ में लिया गया है वहां उसका क्रम ज्ञान के बाद है और जहां दर्शन शब्द अनुभूति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है वहां उसे ज्ञान से पूर्व रखा गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शन को प्राथमिकता देने वाली मात्र दो ही गाथायें हैं। जबकि ज्ञान को प्राथमिकता देने वाली अनेक गाथायें हैं। (क) 'नाणदसण लक्खणं ।' - उत्तराध्ययनसूत्र २८/१। (ब) नाणं च दसणं चेव' - उत्तराध्ययनसूत्र २८/२, ३, ११ । (गो) 'नाणेणं जाणई भावे, दसणेण य सद्दहे। - उत्तराध्ययनसूत्र २८/३५ । । 'पढम ना तओ इया, एवं चिट्ठइ सब्द संजए। अन्नाणी किं.काही? कि वा नाहिइ छेय पावगं ।' - दशवैकालिक ४/१० । नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । परितेन निगिहाइ, तवेण परिसुज्झई ।। - उत्तराध्ययनसूत्र २८/३५ । जतरामयनसूत्र २६/६० एवं ६१। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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