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ज्ञान का स्वरूप या परिभाषा
ज्ञान के प्रत्यय को परिभाषित करना असम्भव नहीं, किन्तु कठिन अवश्य है। हमारे शोधग्रन्थ 'उत्तराध्ययनसूत्र' में ज्ञान के पांच प्रकारों का उल्लेख अवश्य मिलता है' परन्तु उसमें हमें ज्ञान की परिभाषा एवं स्वरूप का स्पष्टतः कोई वर्णन प्राप्त नहीं होता है तथापि उत्तराध्ययनसूत्र की टीकाओं में ज्ञान की . व्युत्पत्तिपरक, परिभाषा अवश्य प्राप्त होती है।
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ज्ञान शब्द की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की गई है, जिसमें ज्ञाने को कर्ता (जाननेवाला), करण (साधन), और अधिकरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
१. जानाति इति ज्ञानम् अर्थात् जो जानता है, वह ज्ञान है। यहां जानने की क्रिया का कर्ता 'ज्ञान' है। इसमें क्रिया एवं कर्ता में अभेदोपचार करके ज्ञान का अर्थ 'आत्मा' भी किया गया है।
२. ज्ञायते अवबुध्यते वस्तुतत्त्वमिति ज्ञानम् अर्थात् आत्मा जिसके द्वारा वस्तुतत्त्व को जानता है, वह ज्ञान है। ज्ञान की यह परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र की टीका में उपलब्ध होती है।' यह ज्ञान की करणमूलक व्युत्पत्ति है ।
३. ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा अर्थात् जिसमें जाना जाता है वह ज्ञान है, वही आत्मा है। यह ज्ञान की अधिकरणमूलक व्युत्पत्ति है। यहां परिणाम (ज्ञान) और परिणामी (आत्मा) में अभेदोपचार किया गया है, आचारांगसूत्र में भी ज्ञान की यही परिभाषा उपलब्ध होती है। उसमें कहा गया है कि 'जो आत्मा है, वह विज्ञाता है जो विज्ञाता है वह आत्मा है । 3
उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसा
उत्तराध्ययनसूत्र में चतुर्विध मोक्षमार्ग की चर्चा के सन्दर्भ में ज्ञान को
साधना का आवश्यक अंग माना गया है। मात्र यही नहीं इसकी कुछ गाथाओं में तो रूप से ज्ञान को मोक्ष मार्ग की साधना का प्रथम सोपान
स्पष्ट
१ तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं । ओहीनाणं तइयं, मणनाणं च केवलं ।।
२ उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र - ५५५ ३ 'जे आया से विण्णाया, जे विण्णाया से आया'
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- उत्तराध्ययनसूत्र २८ । ४
(शान्त्याचार्य) ।
आचारांग १/५/५/१०४ (अंगसुत्ताणि, लाडनूं, खण्ड १, पृष्ठ ४५ ) ।
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