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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित ज्ञानमीमांसीय अवधारणायें . दार्शनिक - चिन्तन के क्षेत्र में ज्ञानमीमांसा का प्रथम स्थान है; क्योंकि ज्ञान के अभाव में दार्शनिक-चिन्तन सम्भव नहीं है। यही कारण है कि पाश्चात्य विचारकों ने दर्शन का अर्थ ही 'ज्ञानानुराग' किया है। दर्शन को आंग्लभाषा में फिलॉसॉफी (Philosophy) कहा जाता है। यह शब्द फिलॉस (Philos) एवं सॉफिया (Sophia) इन दो यूनानी शब्दों के संयोजन से बना है। फिलॉस शब्द का अर्थ 'अनुराग' और सॉफिया का अर्थ 'ज्ञान' है। अतः फिलॉसॉफी (Philosophy) का अर्थ 'ज्ञानानुराग' होता है। ज्ञानानुराग दर्शन (Philosophy) को एक व्यापक अर्थ में प्रस्तुत करता है। यही कारण है कि ज्ञान और विज्ञान की सभी शाखा - प्रशाखाओं को दर्शन का ही अंग माना जाता था, किन्तु जैसे-जैसे ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति हुई उसकी प्रत्येक शाखा ने अपना स्वतन्त्र स्थान बनाया, अतः दर्शन का क्षेत्र सीमित होता गया और विज्ञान आदि दर्शन से स्वतन्त्र हो गये। वर्तमान में दर्शन की मुख्य शाखाओं के रूप में ज्ञानमीमांसा, तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा को ही समाहित किया जाता है। __ प्रत्येक दर्शन का एक ज्ञानमीमांसीय पक्ष होता है। उसके आधार पर ही तत्त्वमीमांसा और आचारमीमांसा अवस्थित रहती है। अतः ज्ञानमीमांसा दर्शन (Philosophy) का अधिष्ठान है। इस प्रकार हम देखते हैं कि पाश्चात्य तथा भारतीय दोनों ही दर्शनों में ज्ञानमीमांसा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। ज्ञानमीमांसा के अन्तर्गत ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान के प्रकार, ज्ञानप्राप्ति के साधन, ज्ञान की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता की कसौटी आदि की चर्चा की जाती है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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