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आत्मीय प्रस्तुति
हिन्दूधर्म में जो स्थान 'गीता' का है, बौद्ध धर्म में 'धम्मपद' का है, ईसाई धर्म में 'बाइबिल' और इस्लाम में "कुरान' का है, वही स्थान जैनधर्म के अर्धमागधी आगम साहित्य में 'उत्तराध्ययनसूत्र' का है । परम्परागत दृष्टि से इसे भगवान महावीर के अन्तिम वचनों या अन्तिम उपदेश के रूप में स्वीकार किया जाता है । वस्तुतः यह जैन धर्म, दर्शन आचार और साधना का लघुकोश ग्रन्थ है । प्रस्तुत ग्रन्थ के छत्तीस अध्ययन जैन धर्म-दर्शन का सर्वांग विवेचन प्रस्तुत करते हैं ।
उत्तराध्ययन नियुक्ति के अनुसार यह ग्रन्थ पूर्व साहित्य से उद्धृत है ।
मेरी व्यक्तिगत मान्यता यह है कि पूर्व में यह ग्रन्थ अंग आगम साहित्य के दसवें अंग . प्रश्नव्याकरणसूत्र में समाहित था । स्थानांगसूत्र में इसे प्रत्येकबुद्धभाषित, महावीर भाषित और आचार्य भाषित कहा गया था । उसी के ऋषि भाषित अंग को अलग करके शेष सामग्री से इस ग्रन्थ की रचना हुई है । यह तथ्य उत्तराध्ययनसूत्र के उपलब्ध संस्करण के अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है । पूज्या साध्वी विनीतप्रज्ञा जी ने अपने इस शोधप्रबन्ध में विस्तार से इसकी चर्चा की है । जहां तक इस ग्रन्थ के रचनाकार का प्रश्न है यह तो सत्य है कि इसके मूलवचन भगवान महावीर तथा अन्य प्रत्येक बुद्धों एवं आचार्यों के हैं, फिर भी उनको संकलित एवं सम्पादित कर वर्तमान स्वरूप प्रदान करने का श्रेय आचार्य भद्रबाहु को जाता है । चाहे हम नियुक्तिकार के रूप में आचार्य भद्रबाहु या आर्य भद्र को स्वीकार करें इतना स्पष्ट है कि नियुक्ति की रचना के पूर्व उत्तराध्ययनसूत्र का वर्तमान स्वरूप प्रायः निर्धारित हो चुका था । माथुरी एवं वल्लभी (प्रथमवाचना) के समय यह ग्रन्थ उपलब्ध था । इसकी माथुरीवाचना को अचेल परम्परा के यापनीय सम्प्रदाय में मान्यता प्राप्त है । अपराजित सूरि (लगभग 9-10वीं शती) ने इसके अनेक अंश अपनी भगवती आराधना की टीका में न केवल उदधृत किये हैं अपितु दशवैकालिक और उत्तराध्ययनसूत्र पर टीका लिखने का भी निर्देश किया है । अर्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करने वाली श्वेताम्बर परम्परा में तो अनेक टीकायें लिखी गई है । न केवल अपने प्रकाशित संस्करणों की अपेक्षा से अपितु उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों
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