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की बहुलता के आधार पर यह एक सुस्थापित सत्य है कि यह ग्रन्थ युग-युगों से जैन समाज में अत्यन्त लोकप्रिय रहा है ।
जैन धर्म, दर्शन आचार और साधना का आकर ग्रन्थ होने पर भी इसकी ओर विद्वत्वर्ग का ध्यान कम ही गया था । सर्वप्रथम हरमन जेकोबी के द्वारा 'सेक्रेडबुक्स आफ द ईस्ट' सीरीज में जब इसका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित हुआ तो विद्वत् समाज का आकर्षण इस ओर बढा । शूब्रिंग ने इसका टिप्पन सहित एक संस्करण प्रकाशित किया । इन दोनों ग्रन्थों की भूमिकाएं विद्वानों में बहुचर्चित रही । पूर्व में मैने शोधकार्य हेतु उत्तराध्ययनसूत्र का मानस बनाया था । किन्तु जब मुझे यह ज्ञात हुआ कि वाराणसी में पार्श्वनाथ विद्याश्रम से श्री सुदर्शनलाल जैन उत्तराध्ययन पर शोध कार्य कर रहे हैं तो मैने अपना मानस बदला और जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों के तुलनात्मक अध्ययन को अपना शोध विषय बनाया । डॉ. सुदर्शनलाल जैन का शोधग्रन्थ 'उत्तराध्ययन एक परिशीलन' बाद में प्रकाशित हुआ - किन्तु इस ग्रन्थ में सांस्कृतिक परिशीलन पर ही अधिक बल दिया गया था । बाद में मेरे मार्ग दर्शन में 'उत्तराध्ययन और धम्मपद का तुलनात्मक अध्ययन' विषय पर श्री महेन्द्रकुमारसिंह का शोध प्रबन्ध तैयार हुआ और प्रकाशित भी हुआ किन्तु दार्शनिक दृष्टि से गम्भीर अध्ययन फिर भी अपेक्षित
था ।
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जब सन् 1996 में साध्वी विनीतप्रज्ञा जी के द्वारा उत्तराध्ययनसूत्र पर शोध कार्य करने का प्रस्ताव मेरे समक्ष आया तो उन्हें इसके दार्शनिक पक्ष पर विशेष बल देने को कहा और उत्तराध्ययनसूत्र का दार्शनिक अनुशीलन ऐसा शोध विषय प्रस्तावित किया ।
गुरुवर्या पूज्या साध्वीवर्या श्री हेमप्रभा श्री जी की यह हार्दिक भावना थी कि यह कार्य मेरे सान्निध्य और दिशानिर्देश में पूर्ण हो । तदनुसार उन्होंने पूज्या अमितयशा श्री जी, विनीतप्रज्ञा श्री जी, शीलांजना श्री जी और दीपमाला श्री जी को मेरे सान्निध्य में शोधकार्य एवं अध्ययन हेतु शाजापुर प्रस्थान करने का निर्देश दिया । साध्वी मण्डल पूना से लगभग एक हजार किलोमीटर की पदयात्रा करके शाजापुर आया और लगभग दो वर्ष जितनी दीर्घ अवधि तक अपने शोधकार्य और जैन आगमों के अध्ययन में दत्तचित्त होकर जुड़ा रहा ।
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