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________________ ११७ टीकाओं की भाषा मुख्यतः संस्कृत रही है। इन टीकाओं के कारण जैन साहित्य का काफी विस्तार हुआ। टीकाओं के माध्यम से टीकाकारों की विशिष्ट प्रतिभा का दर्शन होता है। विद्वान् टीकाकारों ने मनोवैज्ञानिक, दार्शनिक, साहित्यिक, सामाजिक आदि अनेक पहलुओं का विस्तृत विवेचन किया है। प्रत्येक आगम-ग्रन्थ पर कम से कम एक टीका तो अवश्य लिखी गई थी पर आज उनमें से कुछ ही उपलब्ध हैं । वर्तमान में उत्तराध्ययनसूत्र की पांच टीकायें उपलब्ध होती हैं। वे हैं शान्त्याचार्य की शिष्यहितावृत्ति, नेमिचंद्राचार्य की 'सुखबोधा टीका, लक्ष्मीवल्लभगणि की 'दीपिका' टीका, कमलसयंम उपाध्याय की 'सर्वार्थसिद्धि' टीका तथा भाघविजयगणि की उत्तराध्ययनसूत्र वृत्ति। उत्तराध्ययनसूत्र की प्रकाशित टीकाओं का संक्षिप्त परिचय आगे दिया जा रहा है। शान्त्याचार्य कृत टीका वादिवेताल शांन्तिसूरिकृत उत्तराध्ययनसूत्र की टीका का नाम शिष्यहितावृत्ति है। इसका अपर नाम बृहद्वृत्ति है। इसमें प्राकृत कथानकों एवं • उद्धरणों की बहुलता होने से यह 'पाइयटीका के नाम से भी प्रसिद्ध है । यह टीका भाषा, शैली तथा सामग्री आदि की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । इसमें मूलसूत्र तथा निर्युक्ति आदि की गाथाओं को उद्धृत् किया गया है। विद्वानों की मान्यता है कि इसमें कहीं कहीं भाष्य की गाथायें भी उद्धृत् हैं। उत्तराध्ययनसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में यह प्राचीनतम है; इसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०६७ है। इसमें सर्वप्रथम मंगलाचरण के साथ परम्परागत मंगल विषयक चर्चा की गई है। तदनन्तर प्रत्येक अध्ययन और उसकी निर्युक्ति का विवेचन किया. गया है। प्रथम अध्ययन की व्याख्या में नय का स्वरूप प्रतिपादित करते हुए आचार्य सिद्धसेन के सन्मतितर्कप्रकरण की एक गाथा भी उद्धृत् की गई है। जिसका अर्थ है- तीर्थकरों के वचनों का व्याख्यान करने के लिए मूल दो नय हैं; 'द्रव्यार्थिक. नय' और 'पर्यायार्थिक नय शेष नय इन्हीं का विस्तार है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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