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________________ ११६ 2.8.3 चूर्णिसाहित्य और उत्तराध्ययनचूर्णि जैन आगमों की ‘प्राकृत' अथवा 'संस्कृत-मिश्रित-प्राकृत' गद्यात्मक व्याख्यायें चूर्णि' कहलाती हैं। इनमें नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, ओघनियुक्तिचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिकचूर्णि, उत्तराध्ययनचूर्णि, आचारांगचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि, निशीथविशेषचूर्णि, दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि एवं जीतकल्पचूर्णि प्राकृत में ही हैं। उत्तराध्ययनचूर्णि उत्तराध्ययनचूर्णि के रचयिता जिनदासगणि (वि. सातवीं शताब्दी) हैं। यह संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी गई है। इसमें संयोग, पुद्गल, बन्ध, संस्थान, विनय, अनुशासन, परीषह, धर्मविघ्न, मरण, निर्ग्रन्थपंचक, भयसप्तक, ज्ञानक्रियैकान्त आदि विषयों पर सोदाहरण प्रकाश डाला गया है। स्त्रीपरीषह का विवेचन करते हुए आचार्य ने नारी स्वभाव की आलोचना भी की है। साथ ही इसमें कई शब्दों की विशिष्ट व्युत्पत्तियां भी की गई हैं। 101 इस प्रकार आगमिक विषयों के अतिरिक्त इस चूर्णि से तत्कालीन समाज और संस्कृति का परिचय भी प्राप्त होता है । 2.7.4 उत्तराध्ययनसूत्र की संस्कृत टीकायें आगम के आशय को स्पष्ट, स्पष्टतर एवं सुबोध बनाने के लिए जैन आचार्य एवं मनीषी सतत् प्रयत्नशील रहे हैं। फलतः नियुक्तियों, भाष्यों तथा चूर्णियों की रचना के पश्चात् टीकाओं की रचना का क्रम चला। टीकाओं के लिए आचार्यों ने विभिन्न नामों का प्रयोग किया है। यथा टीका, वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, व्याख्या, वार्तिक, दीपिका, अवचूरि, पंजिका, टिप्पण, पर्यायस्तबक, पीठिका आदि। १०१ पूर्णतः इति घोरा, परतः कामतीति पराक्रमः परं वा कामति ..... दस्यते एभिरिति दन्ताः ।' - उत्तराध्ययनचूर्णि पत्र २०८ । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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