________________
११४
२.८.१ निर्मुक्तिसाहित्य और उत्तराध्ययननियुक्ति
नियुक्ति, आगमों के पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को विभिन्न नयों एवं निक्षेपों द्वारा स्पष्ट करने की प्राचीनतम विधा है। जिस प्रकार वैदिक शब्दों की व्याख्या के लिए सर्वप्रथम निरूक्त लिखे गये, सम्भवतः उस प्रकार जैनपरम्परा में आगमों के पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या के लिए सर्वप्रथम नियुक्तियां लिखने का कार्य हुआ।
नियुक्ति का कार्य सूत्र में निबद्ध अर्थ का सयुक्ति प्रतिपादन करना है। नियुक्ति की व्याख्या शैली निक्षेप पद्धति पर आधारित है। इस पद्धति में किसी भी पद के अनेक सम्भावित अर्थ करके उनमें से अप्रस्तुत अर्थ का निराकरण कर प्रस्तुत अर्थ को ग्रहण किया जाता है। यह जैन न्यायशास्त्र की महत्त्वपूर्ण शैली है। दूसरे शब्दों में निक्षेप पद्धति द्वारा शब्दों के अर्थ का प्रासंगिक निर्णय. करना नियुक्ति है।
नियुक्ति का प्रयोजन प्रतिपादित करते हुए आवश्यकनियुक्ति में कहा गया है: 'प्रत्येक शब्द अनेकार्थक होता है । उनमें से यथा प्रसंग कौनसा अर्थ उपयुक्त है और भगवान महावीर के उपदेश के समय कौनसे अर्थ का किस शब्द से सम्बद्ध रहा है आदि बातों पर दृष्टि रखते हुए समीचीन अर्थ का निर्णय करना तथा उस अर्थ का मूल के साथ सम्बन्ध स्थापित करना नियुक्ति का प्रयोजन है।
नियुक्ति के रचनाकाल एवं रचयिता के विषय में परम्परागत अवधारणा यह है कि आचार्य भद्रबाहु (प्रथम) ने ई. पू. तृतीय शती में इनकी रचना की, किन्तु कुछ विद्वान इन्हें भद्रबाहु द्वितीय की रचना मानते हैं। उनका काल विक्रम संवत की सातवीं शती माना जाता है। इस प्रकार नियुक्तियों के रचयिता के सम्बन्ध में विद्वानों में अनेक मान्यतायें हैं। डॉ. सागरमल जैन ने अपने लेख नियुक्तिसाहित्य : एक पुनर्चितन' में इस पर तर्क संगत एवं व्यापक विचार किया है। उन्होंने नियुक्तियों को. आर्यभद्र की रचना माना है, जिनका काल विक्रम की तीसरी शती के लगभग है। 100
€€ 'निज्जुत्ता ते अत्था, जं बद्धा तेण होइ णिज्जुत्ती।
तहवि य इच्छावेइ, विभासिउं सुत्तपरिवाडी।।' १०० 'डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ' पृष्ठ ४६ ।
- आवश्यकनियुक्ति गाथा ६८ (नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ६)।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org