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व्याख्यासाहित्य ग्रन्थगत आशय को समझने में अत्यन्त सहायक होता है, साथ ही इसके द्वारा ग्रन्थ के अनेक महत्त्वपूर्ण तथ्यों का तत्कालीन सन्दर्भों में स्पष्टीकरण भी प्राप्त होता है।
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व्याख्यासाहित्य के निर्माण के मुख्य निम्न प्रयोजन हैं १. पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या करना २. देशकालगत परिवर्तनशील परिस्थितियों में उन पारिभाषिक शब्दों के प्रसंगानुरूप अभीष्ट अर्थ की प्रस्तुति करना ३. उन सिद्धान्तों के परिपालन हेतु उत्सर्ग एवं अपवाद सम्बन्धी व्यवस्था देना और ४. उन सिद्धान्तों को युक्तिसंगत सिद्ध करना।
जैन आगमिक व्याख्यासाहित्य युगानुकूल प्रचलित अनेक भाषाओं में लिखा गया है। जैसे प्राकृत, प्राकृतमिश्रितसंस्कृत, पुरानी मरूगुर्जर, हिन्दी, गुजराती, अंग्रेजी आदि ।
व्याख्यासाहित्य का क्रम निर्युक्ति, भाष्य चूर्णि टीका, विवरण, टब्बा, मरूगुर्जर और आधुनिक भाषाओं में लिखी गई व्याख्यायें हैं। निर्युक्तियां मुख्यतः पारिभाषिक शब्दों की व्याख्यायें तथा आगम की विषयवस्तु का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करती हैं। भाष्यों में शब्दार्थ के साथ विभिन्न सन्दर्भों में उसके विभिन्न अर्थों और सम्बन्धित विषयों का विश्लेषण है। चूर्णिय एवं टीकाओं में आगम में प्रस्तुत विषय के भावार्थ का विवेचन करने के साथ-साथ तत्सम्बन्धी उत्सर्ग, अपवाद आदि नियमों की चर्चा भी की गई
है.
इनके अतिरिक्त आगमिक विषयों का संक्षेप में परिचय देने वाली संग्रहणियां भी अतिप्राचीन हैं। संग्रहणीसूत्र का उल्लेख 'पाक्षिक-सूत्र' . में मिलता है। आधुनिक युग में आगमिक व्याख्यासाहित्य की रचना हिन्दी, अंग्रेजी, गुजराती आदि भाषाओं में भी हो रही है।
इस प्रकार व्याख्यासाहित्य का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है, किन्तु यहां हमें हमारे शोधग्रन्थ उत्तराध्ययनसूत्र से सम्बन्धित व्याख्यासाहित्य का विवेचन ही अभीष्ट है। अतः हम क्रमशः उसका वर्णन करेंगे।
६८ 'सनिजुत्तिए ससंगहणिए जे गुणा'
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- पाक्षिकसूत्र ( स्वाध्याय-सौम्य - सौरभ, पृष्ठ १६० ) ।
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