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संसार में जीव और अजीव ये दो ही मूल तत्त्व हैं। शेष सात तत्त्व . इन्हीं दो तत्त्वों के संयोग या वियोग की अवस्थाओं को सूचित करते हैं। जीव का अजीव से यह संयोग प्रवाह रूप से या जीव सामान्य की अपेक्षा से अनादि-अनन्त है, तथा जीव विशेष की अपेक्षा से सादि-सान्त है। जीव अजीव का यह संयोग ही संसारी जीवन का मूल है; परिभ्रमण का कारण है एवं इस संयोग से विमुक्त होना ही मोक्ष है।
प्रस्तुत अध्ययन में सर्वप्रथम जीव-अजीव के आधार पर 'लोक' एवं 'अलोक' को परिभाषित किया गया है। तत्पश्चात् अजीव तत्त्व के रूपी-अरूपी ऐसे दो भेद किये हैं, पुनः अरूपी अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय एवं काल के दस तथा रूपी अर्थात् पुद्गलास्तिकाय के चार भेद किये गये हैं। फिर पुद्गल का वर्णादि की अपेक्षा से वर्णन करने के बाद जीव के दो भेद सिद्ध एवं संसारी किये हैं। सिद्धों के विस्तार, स्वरूप आदि का यहां विस्तृत वर्णन किया गया है। तदनन्तर संसारी जीव के दो भेद- त्रस एवं स्थावर का उल्लेख करके पंचेन्द्रिय त्रस जीवों-नारक, तिथंच, मनुष्य और देवों के भेद-प्रभेद तथा उनकी भव-स्थिति का भी विवरण प्रस्तुत किया गया है।
. इस अन्तिम अध्ययन का उपसंहार अत्यन्त प्रेरणास्पद है। जिसमें दुर्लभबोधि, सुलभबोधि, बालमरण, पण्डितमरण एवं कन्दर्पभावना, किल्विषिकभावना, आसुरीभावना आदि का संक्षिप्त रूप से वर्णन किया गया है। यह अध्ययन एक प्रकार से जैन दर्शन एवं आचार का सार/निचोड़ प्रतीत होता है।
२.८ उत्तराध्ययनसूत्र का व्याख्यासाहित्य
भारतीय वाङ्मय में नये ग्रन्थों की रचना के साथ-साथ पूर्वाचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों के रहस्य का उद्घाटन करने के लिये उस पर व्याख्यात्मकसाहित्य लिखा गया। जैन आगम ग्रन्थों पर भी प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाओं में अनेक व्याख्याग्रन्थ लिखे गये, जो जैनसाहित्य के महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
६६ ‘जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। ___ अजीव-देसमागासे, अलोए से वियाहिए ।' ६७ उत्तराध्ययनसूत्र ३६/२५१ से २६८ ।
- उत्तराध्ययनसूत्र ३६/२।
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