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________________ जिसमें प्रस्तुत अध्ययन में छः प्रकार की लेश्याओं का वर्णन है कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या को अधर्मलेश्या एवं तेजोलेश्या, पद्मलेश्या एवं शुक्ललेश्या को धर्मलेश्या कहा गया है। 94 ३५. अनगार - मार्ग - गति: प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'अणगारमग्गगई’ अनगार-मार्ग-गति है। इसमें मुख्यतः शान्त या अनाकुल जीवन शैली एवं समाधि - मरण की कला का सुविवेचन किया गया है। इक्कीस गाथाओं के इस लघुकाय अध्ययन में अनेक महत्त्वपूर्ण आचार - विधियों की प्ररूपणा हुई हैं। (१) हिंसा; (३) चौर्य; १११ (५) इच्छा काम; (७) संसक्त स्थान; इस अध्ययन का मुख्य विषय 'संग' निवृत्ति की प्रेरणा है। संग का अर्थ लिप्तता या आसक्ति है। उसके निम्न अंग बतलाए गये हैं - (२) असत्य अब्रह्म सेवन (६) लोभ; (८) गृह निर्माण: (१०) धनार्जन की वृत्ति, (१२) स्वाद वृत्ति, Ex 'किण्हा नीला काऊ, तिन्नि विं एयाओ अहम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, दुग्गई उववज्जई बहुसो ।। तेऊ पम्हा सुक्का, तिन्नि वि एयाओ धम्मलेसाओ । एयाहि तिहि वि जीवो, सुग्गई उववज्जई बहुसो ।।' ६५ 'निज्जूहिऊण आहार, कालधम्मे उवट्ठिए । जहिऊण माणुसं बोंदि, पहूदुक्खे विमुच्चई || निम्ममो निरहंकारी, वीयराओ अणासवो । संपत्तो केवलं नाणं, सासयं परिणिब्बुए । ' (६) अन्नपाक; (११) प्रतिबद्ध भिक्षा; (१३) पूजा प्रसिद्धि की अभिलाषा । इसमें आसक्त व्यक्ति हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, लोभ आदि दुष्कर्म में प्रवृत्त होता है। Jain Education International - अन्त में इसमें मुनि को अपनी आयु पूर्ण होने की अनुभूति होने पर आहारत्यागपूर्वक समाधिमरण की प्रेरणा दी है एवं यह बतलाया गया है कि अनासक्त-अनाश्रव एवं वीतराग आत्मा पूर्णतः शुद्ध होकर आत्मस्थ हो जाती है। - ३६. जीवाजीवविभक्ति : जीवाजीवविभक्ति उत्तराध्ययनसूत्र का अन्तिम अध्ययन है यह २६८ गाथाओं में आबद्ध है। इसमें मुख्यतः जीव - अजीव के विभागों का द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव की अपेक्षा से निरूपण किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र ३४ / ५६ एवं ५७ । वही ३५ / २० एवं २१ । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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