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चारित्र साधुजीवन का मेरूदण्ड है। चारित्र का प्रारम्भ संयम की साधना से होता है। उसके लिए करणीय / उपादेय एवं अकरणीय / हेय का विचार करना आवश्यक होता है। इन्हीं का उल्लेख इस अध्ययन में समाहित है। साथ ही कुछ जानने योग्य/ज्ञेय विषय जैसे देवताओं के पन्द्रह एवं चौवीस प्रकारों . का भी वर्णन किया गया है।
इस अध्ययन में एक से लेकर तैंतीस संख्या तक अनेक विषयों का वर्णन हुआ है।
___चारित्र में सम्यक् प्रवृत्ति के लिये पांच महाव्रत, पांच समिति, दशविध श्रमणधर्म, सम्यक्तप, परिषहजय आदि का नामोल्लेख किया गया है।
चारित्र-विमुख करने वाले भावों से निवृत्ति के लिये असंयम, राग-द्वेष, बन्धन, विराधना, अशुभलेश्या, मदस्थान, क्रियास्थान, कषाय, अशुभक्रियायें, शबलदोष, पापश्रुत प्रसंग, मोहस्थान एवं आशातना आदि का सांकेतिक वर्णन है। इस प्रकार यह अध्ययन हमें असंयम से निवृत्ति एवं संयम में प्रवृत्ति की प्रेरणा देकर आत्मजागृति की दिशा में अग्रसर करता है। ३२. प्रमादस्थान : प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'प्रमाद-स्थान' है। उत्तराध्ययननियुक्ति में इसका नाम 'अप्रमादस्थान' भी मिलता है। वस्तुतः इन दोनों ही नामों की संगति है क्योंकि इसमें प्रमाद के स्थानों का वर्णन कर अप्रमत्त होने की प्रेरणा दी गई है। इस प्रकार इस अध्ययन में वर्णित विषय की अपेक्षा से इसका नाम 'प्रमादस्थान' उचित प्रतीत होता है तथा इस अध्ययन में निहित प्रेरणा की अपेक्षा से इसका नाम 'अप्रमादस्थान' युक्तियुक्त है। इस अध्ययन में १११ गाथायें हैं।
सर्वप्रथम इसमें मुक्ति के उपायों तथा साधना में आने वाली साधक एवं बाधक परिस्थितियों का वर्णन किया गया है। तत्पश्चात् १० से ६६ तक गाथाओं में पांचों इन्द्रियों और मन के विषयों में राग-द्वेष करने के परिणामों तथा उनके उत्पादन, संरक्षण, व्यय एवं वियोग में होने वाले दुःखों एवं दोषों (हिंसा, असत्य, दम्भ, चोरी, अब्रह्मचर्य एवं परिग्रह) का विस्तृत वर्णन है। साथ ही इसमें यह भी बतलाया गया है कि ये विषय आसक्त व्यक्ति के कर्म-बन्ध (दुःख) का कारण होते हैं। वीतरागी आत्मा इनसे अप्रभावित रहती है। काम-भोग अपने आप में न राग
६० 'एगओ विरई कुज्जा, एगओ य पक्तणं ।
असंजमे नियत्तिं च, संजमे य पवत्तणं ।।' ६१ उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा ५२०
- उत्तराध्ययनसूत्र ३१/२ । - (नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ४१५) ।
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