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(५७) वाक समाधारणा (५८) काय समाधारणा (५६) ज्ञान सम्पन्नता (६०) दर्शन सम्पन्नता (६१) चारित्र सम्पन्नता (६२) श्रोत्र इन्द्रियनिग्रह (६३) चक्षु इन्द्रियनिग्रह (६४) घाण इन्द्रियनिग्रह (६५) जिह्वा/रसना इन्द्रियनिग्रह (६६) स्पर्श इन्द्रियनिग्रह (६७) क्रोध विजय (६८) मानविजय
(६६) माया/कपट विजय (७०) लोभ विजय (७१) प्रेय-द्वेष-मिथ्यादर्शन विजय (७२) शैलेशी (७३) अकर्मता।
इस प्रकार जैन दर्शन की साधना एवं उसके परिणामों का सम्यक विवेचन इस अध्ययन में किया गया है। ३०. तपोमार्गगति : इस तवमग्गगई - तपोमार्गगति नामक अध्ययन में ३७ गाथायें हैं।
प्रस्तुत अध्ययन में तप का विस्तृत निरुपण किया गया है। तप एक दिव्य रसायन है। यह शरीर और आत्मा के यौगिक भाव / अभेद बुद्धि को नष्ट कर आत्मा को अपने शुद्ध स्वरुप का बोध कराता है। अनादि अनन्तकाल के संस्कारों से आत्मा की शरीर के प्रति प्रगाढ़ आसक्ति हो गई है। उसे तोड़े बिना मुक्ति नहीं हो सकती। तप उसे तोड़ने का सशक्त साधन या अचूक उपाय है। इसमें तप के मुख्यतः दो भेद प्रतिपादित किये हैं- (१) बाह्य और (२) आभ्यन्तर।
. पुनश्च बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों तप के छ: छ: भेद किये गये हैं। बाह्य तप के निम्न प्रकार हैं - . (१) अनशन; (२) अवमोदरिका (उणोदरी); (३) भिक्षाचर्या (वृत्ति निक्षेप);
(४) रस परित्याग; (५) कायक्लेश और (६) प्रतिसंलीनता । आभ्यन्तर तप के निम्न छ: प्रकार हैं :(१) प्रायश्चित्त; . (२) विनय;
(३) वैयावृत्य; .. (४) स्वाध्याय; (५) ध्यान;
(६) व्युत्सर्ग (कायोत्सर्ग) इस प्रकार इसमें तप के विवेचन के साथ यह उल्लेख किया है कि तप पूर्वकृत कर्मों को निर्जरित /क्षय करने का श्रेष्ठ साधन है। ३१. चरणविधि : श्रमणों की चारित्रविधि का वर्णन होने से इस अध्ययन का नाम 'चरणविही' (चरणविधि) रखा गया है। इसमें २१ गाथायें हैं।
८८ "भवकोड़ीसंचिर्य कम्म, नवसा निजरिज्जइ ।।'
- उत्तराध्ययनसूत्र ३०/६ ।
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