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________________ १०६ है और तप से शुद्ध होता है। इस प्रकार इस अध्ययन में आध्यात्मिक एवं दार्शनिक दोनों ही पक्षों का सुन्दर समन्वय किया गया है। २६. सम्यक्त्व पराक्रम : उत्तराध्ययनसत्र का २६वां. अध्ययन "सम्यक्त्वपराक्रम' नामक है। कतिपय आचार्य इस अध्ययन को 'वीतरागश्रुत' या 'अप्रमादश्रुत' भी कहते हैं। ऐसा नियुक्तिकार का अभिमत है। इसकी ७४ गाथाओं में जैन धर्म-दर्शन के ७३ विषयों को परिभाषित कर उनके परिणामों की चर्चा की गई है। यह अध्ययन गद्यात्मक है। पराक्रम अर्थात् पुरूषार्थ सामर्थ्य या क्षमता वैसे तो ये जीव मात्र में विद्यमान है। परन्तु उसे किस दिशा में नियोजित करना चाहिये, इसकी विवेचना इस अध्ययन में की गई है। यह विवेचन प्रश्नोत्तर शैली में है और प्रत्येक विषय के अर्थ को स्पष्ट करते हुए उसकी साधना के परिणाम का विवरण प्रस्तुत करता है। इसके विवेच्य विषय निम्न हैं - (७) संवेद (२) निर्वेद (३) धर्मश्रद्धा (४) गुरू एवं साधर्मिक शुश्रूषा (५) आलोचना (६) निन्दा (७) गर्दा (८) सामायिक (६) चतुर्विंशतिस्तव (१०) वन्दना (११) प्रतिक्रमण (१२) कायोत्सर्ग (१३) प्रत्याख्यान (१४) स्तव-स्तुति मंगल (१५) काल प्रतिलेखना (१६) प्रायश्चित्त (१७) क्षमापना (१८) स्वाध्याय (१६) वाचना (२०) प्रतिप्रच्छना (२१) परावर्तना (२२) अनुप्रेक्षा (२३) धर्मकथा (२४) श्रुत आराधना (२५) मन की एकाग्रता (२६) संयम (२७) तप (२८) व्यवदान विशुद्धि (कर्मविशुद्धि) (२६) सुखशात - (३०) अप्रतिबद्धता (३१) विविक्त शयनासनसेवन (३२) विनिवर्तना (३३) संभोगप्रत्याख्यान (३४) उपधि प्रत्याख्यान (३५) आहार प्रत्याख्यान (३६) कषाय प्रत्याख्यान (३७) योग प्रत्याख्यान (३८) शरीर प्रत्याख्यान (३६) सहाय प्रत्याख्यान (४०) भक्त प्रत्याख्यान (४१) सद्भाव प्रत्याख्यान (पूर्णसंवर) (४२) प्रतिरूपता (४३) वैयावृत्य (४४) सर्वगुण सम्पन्नता (४५) वीतरागता (४६) क्षमा (४७) मुक्ति (निर्लोभता) (४८) आर्जव-ऋजुता (४६) मार्दव-मृदुता (५०) भावसत्य (५१) करणसत्य (५२) योगसत्य (५३) मनोगुप्ति (५४) वचनगुप्ति (५५) कायगुप्ति (५६) मनः समाधारणा ८७ उत्तराध्ययनसूत्र २८/३५ । ५८ 'आयाणपएणेयं, सम्मत्तपरक्कमति अज्झयणं । गुण्णं तु अप्पमायं, एगे पुण वीयरागसुयं ।।' - उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा ५०४ (नियुक्तिसंग्रह पृष्ठ ४१४)। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004235
Book TitleUttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinitpragnashreeji
PublisherChandraprabhu Maharaj Juna Jain Mandir Trust
Publication Year2002
Total Pages682
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size9 MB
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