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प्रस्तुत अध्ययन में हृदय-परिवर्तन के दो विशिष्ट मार्मिक प्रसंगों का वर्णन किया गया है। प्रारम्भ में पशुओं की करूण पुकार से नेमिकुमार के हृदय-परिवर्तन एवं उत्तरार्ध में राजीमती के उद्बोधन द्वारा रथनेमि के हृदय-परिवर्तन का वर्णन है।
शोरियपुर नगर में द्वैध राज्य प्रणाली थी। राजा वसुदेव एवं राजा समुद्रविजय वहां राज्य करते थे। वसुदेव राजा के राम (बलदेव) एवं केशव (कृष्ण) दो पुत्र थे। समुद्रविजय राजा के अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि एवं दृढ़नेमि ये चार पुत्र थे।
अरिष्टनेमि का विवाह राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ निश्चित हुआ था। अरिष्टनेमि विशाल बारात के साथ विवाहमण्डप के निकट पहुंचे । उन्हें पशुओं का करूण क्रन्दन सुनाई दिया। वे सारथी से पूछने लगे : 'ये पशु क्यों विलाप कर रहे हैं ?' सारथी ने कहा : 'कुमार ! आपके विवाह में आयोजित भोज के लिये इन पशुओं को मारने के लिये बंद कर रखा है।'
अरिष्टनेमि विचार करने लगे अरे ! मेरे विवाह के लिए यह कैसी घोर हिंसा!! निरपराध एवं निर्दोष जीवों के प्राण लेने में कैसा आनन्द!! नहीं-नहीं, मुझे अब आगे नही बढ़ना है। यह निर्णय कर उन्होंने तुरन्त सारथी को रथ वापस मोड़ने का आदेश दे दिया और वे भोगी बनने के क्षणों में महायोगी बन गए। उन्होंने संयम स्वीकार कर लिया।
राजीमती को जब यह बात विदित हुई, वह मूर्छित हो गई। लेकिन होश में आते ही सम्भल गई। उसका मन विरक्त हो गया और उसने भी अरिष्टनेमि के मार्ग का अनुसरण किया । दीक्षित हो गई। उस समय श्रीकृष्ण ने राजीमती को यह महत्त्वपूर्ण आशीर्वाद दिया : 'हे कन्ये! इस घोर संसार को शीघ्र पार कर।'
एक बार साध्वी राजीमती अरिष्टनेमि प्रभु का वन्दन करने के लिये रैवतक पर्वत पर जा रही थी कि अचानक वर्षा आरम्भ हुई। राजीमती ने एक गुफा में प्रवेश किया और अपने गीले वस्त्र सुखाने लगी। उसी गुफा में कायोत्सर्ग ध्यान स्थित मुनि रथनेमि की दृष्टि बिजली के चमकने पर राजीमती की कंचन काया पर पड़ी। रथनेमि का मन विचलित हो गया और उन्होंने राजीमती से कहा कि हम भोग भोगकर दोनों वृद्धावस्था में संयम ले लेंगे। राजीमती ने रथनेमि को संयम में पुन स्थित करने हेतु विषभोगों का दारूण विपाक एवं व्रतभंग के फल का निरूपण
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