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किया।'' राजीमती के वैराग्योत्पादक वचनों से रथनेमि पुनः संयम में दृढ़ हो गए और अन्त में रथनेमि एवं राजीमती दोनों शुद्ध संयम का पालन करके सिद्धि को प्राप्त हुए। इसमें वर्णित राजीमती के उदबोधन ने इस तथ्य को प्रस्तुत किया है कि नारी वासना की दासी नहीं, किन्तु वैराग्य की प्रेरणा स्रोत है। २३. केशी-गौतमीय : तेईसवें अध्ययन का नाम केशी-गौतमीय है। इसमें तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ के शिष्य केशीश्रमण और प्रभु महावीर के प्रथम शिष्य गौतमस्वामी का संवाद है। इसकी ८६ गाथायें हैं।
केशीश्रमण और गौतमस्वामी का अपने-अपने शिष्य परिवार सहित एक ही समय में श्रावस्ती नगरी में समागम हुआ। दोनों आचार्यों के शिष्यों को एक दूसरे को देखकर विचार आया कि एक ही लक्ष्य की प्राप्ति हेतु साधनारत होते हुए भी हमारे आचार व्यवहार में यह विभिन्नता क्यों हैं ? शिष्यों की शंका के निवारण के लिए दोनों आचार्य परस्पर मिलने का विचार करते हैं। ज्येष्ठ कुल की मर्यादा रखते हुए गौतमस्वामी अपने शिष्यपरिवार सहित केशीश्रमण के पास जाते हैं। केशीश्रमण गौतमस्वामी का योग्य आदर सत्कार करते हैं। पश्चात् उनसे अनेक प्रश्न पूछते हैं। गौतमस्वामी उनका उत्तर देते हुए कहते हैं कि हमारा मूल लक्ष्य तो एक ही है; इसमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु आचरण की जो विविधता है, उसका कारण मनुष्यों की स्वभावगत भिन्नता एवं कालगत परिवर्तन है। तीर्थकर ऋषभदेव के समय के मुनि ऋजु-जड़ होते थे। द्वितीय तीर्थकर अजितनाथ से तेईसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ तक मध्यकालीन बाईस तीर्थंकरों के साधु सरल एवं प्राज्ञ होते थे, किन्तु भगवान महावीर के काल के साधु वक्र-जड़ होते हैं। इस कारण से प्रभु पार्श्वनाथ और महावीरस्वामी की आचार व्यवस्था में वैविध्य है। जहां पार्श्वनाथ की आचार व्यवस्था चातुर्यामरूप एवं सचेल है, वहां भगवान महावीरस्वामी की आचार व्यवस्था पंचमहाव्रत रूप एवं अचेल है। जहां पार्श्वनाथ की आचार व्यवस्था में दोष लगने पर ही प्रतिक्रमण करने का विधान है, वहां भगवान महावीर की धर्म व्यवस्था में प्रतिक्रमण अनिवार्यतः करना होता है। केशीश्रमण
- उत्तराध्ययनसूत्र २२/४५ ।
७६ 'जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारिओ।
वायाविदो ब हडो, अट्ठिअप्पा भविस्ससि ॥' १० 'अचेलगो य जो धम्मो, जो इगो संतस्त्तरो।
देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महाजसा ।।'
- वही २३/२६ ।
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